मंगलवार, 30 दिसंबर 2008

बहन (जी) के लिए इतना भी नहीं कर सकते?

हद कर दी आपने। (पता है गोविंदा, रानी मुख़र्जी की फ़िल्म का नाम है, टॉपिक चेंज मत करो!)

बहन कहते हो और बहन का जन्मदिन मनाने में नानी मरती है (अब यह मत कहना कि नानी नहीं, इंजिनियर मरता है!) ।

एक तो इतने अहमक भरे पड़े हैं बी एस पी में कि हर काम बेचारी एक जान बहन जी को करनी पड़ती है। ये तो गनीमत है कि यू. पी. जैसा स्टेट है जहाँ सरकार चलाने में कोई मेहनत नहीं है। बी एस पी का मतलब कोई 'बिजली सड़क पानी' थोड़े ही न है कि ये सब चीज़ें जनता को देनी पड़ें!

बेचारी बहन जी ३६४ दिन काम करती हैं, और काम भी कैसे कैसे विकट और मेहनत वाले!
इत्ते मोटे मोटे हार पहनना, आपके गले में एक लटका दें तो आपका तो सर टूट कर ज़मीन पर जा गिरे! लेकिन बहनजी इतने मेहनतकश हैं, उफ़ तक नहीं करती।

और कौन कहता है कि बहन जी सिर्फ़ दलितों की मसीहा हैं। खुदी देख लो, इंजिनियर की हत्या का आरोपी विधायक पंडित है, शेखर तिवारी, लेकिन बहन जी बचा रही हैं उसे। हैं कि नहीं। तो फ़िर? हर जाति को खुश रखना कोई मामूली काम समझे हो?

पूरी दुनिया में रिसेशन चला है और बड़े से बड़े इकोनोमिस्ट कहते हैं कि सरकार को ही अब मार्केट में पैसा डालना पड़ेगा, इन्फ्रास्ट्रक्चर पर पैसे खर्च करने पड़ेंगे। अब बोलो, बहन जी से ज़्यादा दूरदर्शी है कोई? इतने साल से आंबेडकर पार्क, परिवर्तन चौक और फ़िर मुख्यमंत्री निवास पर सैकडो करोड़ खर्च किए हैं उन्होंने! इंडस्ट्री वगैरह में रखा ही क्या है। देख लेना, रिसेशन में सबसे कम प्राइवेट नौकरियां यू पी में ही जाएंगी, क्यूँ अभी भी सबसे कम प्राइवेट नौकरियां यू पी में हैं!

और फ़िर अब लखनऊ को पिंक सिटी बना रही हैं। थोड़े दिन बाद जयपुर की जगह लखनऊ में आएँगे टूरिस्ट। समझा क्या बहन जी को।

और सोचो ज़रा, कितनी मुश्किल ज़िन्दगी है बेचारी बहन जी की। हर कोने में एक दुश्मन। हर किसी से उनकी जान को खतरा। बाहर निकलती हैं तो ३५० पुलिस वालों के पहरे में, ३५ कारों के काफिले में। अपनी रियाया के चेहरे तक नहीं देख पाती (सड़कों पे लोगों को दूसरी तरफ़ देखने को कहती है पुलिस, और जिनके घर हों वो घर की खिड़की दरवाज़े बंद कर के अन्दर बैठें, जब तक काफिला न निकल जाए)! बताओ ये भी कोई ज़िन्दगी है। लेकिन बहन जी ये सब सहन कर रही हैं सिर्फ़ आप जैसों के लिए। और आप उनका जन्मदिन मनाने के लिए २-३ लाख चंदा भी नहीं दे सकते!

वैसे एक आईडिया आया है, अगर ये सेक्शन ८० जी के अंतर्गत आ जाए तो कितना अच्छा हो। जैसे प्रधानमंत्री राहत कोष में दान ५०% कर मुक्त होता है, वैसे ही अगर जन्मदिन कोष में दिया हुआ चंदा भी कर मुक्त हो सके तो। और वैसे भी तो बहन जी आगे जा के पी एम ही तो बनेंगी।

वाह वाह, क्या आईडिया है! बहन जी सुन लो...

गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

विविध भारती का 'चित्रलोक' याद है?

अब तो काफ़ी टाइम से विविध भारती तो क्या कोई हिन्दी स्टेशन नहीं सुना। यहाँ हैदराबाद में जब से रेडियो सिटी भी पूरी तरह से तेलुगु बन गया तब से रेडियो सुनना लगभग ख़त्म हो गया है।

करीब ८ साल हो गए हैं इलाहाबाद छोड़े हुए, और तभी से विविध भारती से नाता टूटा। नोएडा में तो आकाशवाणी के एफ एम चैनल आते थे और बाद में फ़िर रेडियो मिर्ची, रेडियो सिटी और रेड एफ एम जैसे नए स्टेशन शुरू हो गए थे। और सच कहूँ तो तब विविध भारती का छूटना कोई बुरा भी नहीं लगा। अब तो इलाहाबाद में भी बिग एफ एम शुरू हो गया है तो पता नहीं कितनी अभी भी विविध भारती सुनते होंगे!

इस चैनल के साथ मुझे प्रॉब्लम ये थी इस पर सिर्फ़ और सिर्फ़ पुराने गाने ही आते थे और किसी भी एंगल से ये मुझे अपना हमउम्र तो नहीं लगा कभी! हालांकि रात को ८.४५ पर रेडियो नाटिका और सन्डे के दिन विविधा मुझे बहुत पसंद थे और कमल शर्मा की ज़बरदस्त आवाज़ और अंदाज़ तो मैं शायद कभी नहीं भूल पाऊंगा। और भी कई कार्यक्रम मुझे काफ़ी अच्छे लगते थे. लेकिन समस्या थी पुराने गाने सो मेरा फेवरिट प्रोग्राम था 'चित्रलोक' सुबह ८.३० से ९.३० तक नयी फिल्मों के रेडियो विज्ञापन (८० के दशक के अंत और ९० के दशक की शुरुआत में रेडियो पर फिल्मों और राज कॉमिक्स के स्पॉन्सर्ड प्रोग्राम याद हैं?) आते थे और फ़िर नए गाने भी। दूरदर्शन पर तो ऐसा कोई कार्यक्रम आता नहीं था, सो नयी फिल्मों और उनके गाने सुनने के लिए यही एक जरिया था मेरे पास!

लेकिन फ़िर जैसे जैसे केबल टीवी का विस्तार बढ़ा, चित्रलोक से फिल्मों के विज्ञापन और फ़िर नए गाने भी गायब होते गए। नए गानों के नाम पर ६-८ महीने पुरानी फिल्मों के गाने बजने लगे। विविध भारती के लिए वो भी खैर नया ही था!

आज अचानक से याद आ गयी।

शनिवार, 6 दिसंबर 2008

सिर्फ़ नेताओं को गाली देने से काम नहीं चलेगा

इन दिनों आतंकवाद के ख़िलाफ़ काफ़ी सारे 'आन्दोलन' चल रहे हैं। कहाँ? इन्टरनेट पर, टीवी चैनलों पर और अखबारों में। सभी में दो ही बातें हो रही है, नेताओं के ख़िलाफ़ गुस्सा और 'आतंकवाद का विरोध'।

सिर्फ़ 'बातें'. चाहे वो कैंडल लाइट रैली हों या हस्ताक्षर अभियान सभी में सिर्फ़ 'बातें' और नारेबाज़ी। इस तरह नारे लगाने से या 'से नो टू टेरर' लिखने से अगर आतंकवादियों के हौंसले पस्त होने लगते तो आज तक दुनिया में आतंकवाद का नाम मिट गया होता।

लेकिन हम भारतीयों को 'सिम्बोलिज्म' से बड़ा प्यार है। ईमेल फॉरवर्ड कर के, रैली में मोमबत्ती जला के और नारे लगा के हमारे अपने कर्तव्यों की इतिश्री करना लेते हैं। किसी और पर ज़िम्मेदारी थोपने में हम वैसे ही माहिर हैं, इस बार नेताओं पर, (मैं यह हरगिज़ नहीं कह रहा कि नेताओं को क्लीन चिट दे दी जाए, उन्होंने वाकई गाली खाने लायक काम किया है!) लेकिन अपनी ज़िम्मेदारी को हम क्यों भूल जाते हैं।

सिर्फ़ बातों से काम नहीं चलेगा। क्या हम वाकई आतंकवाद के ख़िलाफ़ हैं? क्या हम सिम कार्ड के लिए फर्जी कागज़ नहीं देते? और नहीं देते तो लेने वाले दूकानदार के ख़िलाफ़ रिपोर्ट करते हैं? क्या हम मॉल के बाहर बैग चेक करने वाले प्राइवेट सेक्युरिटी गार्ड को धौंस नहीं देते? क्या हम रेलवे स्टेशन पर वाहन की जांच के समय नाक भौं नहीं सिकोड़ते? किरायेदार का पुलिस वेरिफिकेशन तो शायद ही कोई करता है और हम में से कितने किसी मुश्किल वक्त में पुलिस या अन्य एजेंसियों की मदद के लिए आगे आते हैं?

बातें करना आसान हैआतंकवाद का मुकाबला करने के लिए कुछ करने का माद्दा होना चाहिए

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

"वोट बैंक बनो". साथ दीजिये इस नए आन्दोलन में.

अगर आपने सुकेतु मेहता की 'मैक्सिमम सिटी: बॉम्बे लॉस्ट एंड फाउंड' पढ़ी है तो मुंबई के बारे में आप काफ़ी बातें जानेंगे। उनमें से एक ये है, कि चुनाव के समय कोई नेता दक्षिण मुंबई की अमीर सोसाइटीज़ में वोट मांगने नहीं जाता। ऐसे ही आन्ध्र प्रदेश में जयप्रकाश नारायण की लोकसत्ता पार्टी, जिसकी काफ़ी इज्ज़त की जाती है पढ़े लिखे तबकों में, एक भी सीट नहीं जीतती।

दोनों बातों की वजहें आप समझ ही गए होंगे। क्यूंकि ये पढ़े लिखे 'सभ्य समाज' के लोग वोट नहीं करने जाते।
एक बात हमको समझनी पड़ेगी। बात उसी की सुनी जाती है जिसकी कोई हस्ती होती है। नेताओं के लिए हमारी जान की कोई कीमत नहीं है, उनको सिर्फ़ अपनी घटिया और गन्दी राजनीति ही करनी है तो फ़िर ठीक है, हमको अपने वोट की कीमत पहचाननी होगी। अगर नेताओं के लिए सिर्फ़ वोट बैंक का ही मोल है तो हमको वोट
बैंक बनना पड़ेगा। नेताओं को समझाना पड़ेगा कि उनके घटियापन का जवाब हम अपने वोट के ज़रिये दे सकते हैं।

इसलिए ये एक नया आन्दोलन: Be Votebank. Be Heard.

६ राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, अधिक से अधिक लोग वोट दें, सभ्य समाज के लोग अपने आप को, अपने अस्तित्व को, अपनी राय को और अपने जीने के अधिकार को वोट के माध्यम से बढ़ा चढ़ा के बताएं। इसलिए ये पहल।
नीचे दिए गए किसी भी लोगो को अपने ब्लॉग/साईट पर लगाएं और अपने मित्रों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करें।

जो बोट से आए वो तो एन एस जी के कमांडो ने मार दिए, जो वोट से आते हैं, उनको तो हमें संभालना पड़ेगा न!
(यह पोस्ट अंग्रेज़ी में यहाँ)

शुक्रवार, 28 नवंबर 2008

रिक्त

शब्द, आंसू और क्रोध अब कुछ नहीं बचा है इस मन में।
रिक्त हो गया है ये अब तो।
क्या कहूँ, किससे कहूं!
हर कन्धा तो आंसुओं से भीगा हुआ है।


(चित्र आभार )

शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

चढ़ते सूरज को सब सलाम करते हैं!

रीडिफ़.कॉम पर ये विज्ञापन देखा तो यही याद आया। आज जहाँ धोनी साब की फ़ोटो है कभी सचिन तेंदुलकर की होती थी। खैर...

रविवार, 9 नवंबर 2008

दान कीजिये अपने पुराने कंप्यूटर को

आपके पुराने कंप्यूटर से आपकी काफ़ी यादें जुड़ी होंगी लेकिन अब उन यादों पर सिर्फ़ धूल पड़ रही है और आप अपने लैपटॉप पर ही काम करते हैं, क्यूंकि उस पुराने कंप्यूटर में ना तो ज़रूरत के मुताबिक रैम है, न प्रोसेसर स्पीड। हार्ड डिस्क भी कम ही है और अब आप उस 800x600 के स्क्रीन को तो देख भी नहीं सकते।

क्यूँ नहीं आप इस पुराने साथी को किसी का नया साथी बना देते? यदि आप अपने पुराने कंप्यूटर को किसी गैर-सरकारी संस्था, किसी विद्यालय या अनाथाश्रम को दान करना चाहते हैं तो अब आप की सहायता के लिए एक नयी साईट आ गयी है: डोनेट योर पीसी.इन । जब आप किसी पुराने कंप्यूटर को दान करते हैं, तो न सिर्फ़ आप किसी की सहायता कर रहे हैं, बल्कि पर्यावरण के प्रति भी एक योगदान कर रहे होते हैं। क्यूंकि पुराने कंप्यूटर को रिसाइकिल करना भी काफ़ी प्रदूषण फैलाता है।

इस समय ये साईट पुणे, बंगलोर और हैदराबाद में कार्यरत है। और हमें अन्य नगरों के लिए सहयोगियों की आवश्यकता है. तो यदि आप दान नहीं भी करना चाहते तो भी आप मदद कर सकते हैं। (कृपया यहाँ देखिये।)

एक ख़ास बात: ये साईट कोई एन. जी. ओ. नहीं है, लेकिन इसका उद्देश्य लाभ कमाना नहीं है। साईट के बारे में कोई भी प्रश्न/टिप्पणी आप यहाँ छोड़ सकते हैं या contact@donateyourpc.in पर भेज सकते हैं।

बुधवार, 1 अक्तूबर 2008

क्या इसी भारत पर गर्व है आपको?

ये ब्लॉग पढ़ने से पहले ज़रा रीडिफ़.कॉम पर इस लेख पर आयी हुई टिप्पणियों को पढ़िये, और फ़िर वापिस आइये।
अगर आपने पढ़ लिया तो सोच कर बताइये, ये कौन लोग हैं? क्या इसी हिंदुस्तान के हैं, इसी मिट्टी के जिससे आप और मैं निकले हैं? अगर हाँ तो मुझे तो अपने आप पर शर्म आ रही है, कि ऐसे लोगों को मुझे अपना देशवासी कहना पड़ रहा है!

सोच कितनी गिर सकती है, आदमी किस कदर घटिया हो सकता है, दिमाग में कचरा किस कदर भर सकता है ये जानना हो तो रीडिफ़.कॉम के किसी भी लेख पर टिप्पणियां पढ़ लीजिये। ऐसा लगता है जैसे इस देश में और इसके लोगों में सिर्फ़ नफरत ही भरी हो, एक दूसरे के प्रति। हर बात पर विवाद, हिंदू-मुस्लिम, उत्तर-दक्षिण, महिला-पुरूष और लगभग हर बात पर या बिना बात के ही! और विवाद भी सिर्फ़ मतभेद तक ही सीमित नहीं, एक दूसरे को अश्लील - अपशब्द कहना भी ज़रूरी।

आख़िर ये कौन लोग हैं जो रफ़ी साहब और महेंद्र कपूर साहब के लिए ऐसी बातें कह सकते हैं, मुझे तो नहीं समझ आ रहा। ये कैसे लोगों के बीच रह रहा हूँ मैं!

मंगलवार, 23 सितंबर 2008

तुम से पूछूँ

'नज़र लगे न' की यह पंक्तियाँ दिल छू गयीं!

तुम से पूछूँ,
ख़ुद से पूछूँ
या दिल के अरमानों से
प्यार के लम्हे
अक्सर ही क्यूँ
आते हैं मेहमानों से

पास घड़ी भर को
रहते हैं
कल फ़िर आएँगे
कहते हैं!

ना पानी ना
ये हवा से
फ़िर जाने क्यूँ
बहते हैं!

('A Wednesday' फ़िल्म से)

गुरुवार, 11 सितंबर 2008

हिन्दी न्यूज़ चैनलों का नया यूज़

आज सुबह अखबारों में पढ़ा कि जेनेवा में बिग बैंग प्रयोग के बारे में इंडिया टीवी की ख़बर से एक १६ वर्षीया इतनी भयाक्रांत हुई कि दुनिया के अंत से पहले उसने अपने जीवन का अंत कर लिया दुखद ख़बर थी, दुःख हुआ

लेकिन अगर डर के आगे जीत है तो दुःख के आगे फायदा है!

आपने मनोज नाईट श्यामलन की 'द हैपनिंग' देखी है? इस फ़िल्म में प्रदूषण से त्रस्त हो कर पेड़ पौधे हवा में ऐसा रसायन छोड़ने लगते हैं कि लोगों में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति जाग उठती है। अब देखिये इंडिया टीवी की खबरों में भी वही खासियत झलकने लगी है। ख़बर देख के लोग आत्महत्या करने लगते हैं। (मेरे घर में तो खैर ये चैनल आता नहीं, वरना ये ब्लॉग लिखने के लिए मैं जिंदा न रहता!)

अब सोचिये तो ये थर्ड डिग्री के लिए कैसा रहेगा? हवलदार चोर से कहेगा "बता कहाँ माल छुपा के रखा है वरना अभी इंडिया टीवी के आगे बिठा दूँगा", चोर झट से माल का पता बता देगा। पत्नी को नया हार चाहिए और पति ने नहीं दिलाया तो उसके घर आते ही इंडिया टीवी लगा देगी और पति को हार कर हार दिलाना ही पड़ेगा!

वैसे थर्ड डिग्री से थोड़ा नीचे सेकंड डिग्री का भी इंतजाम है। स्टार न्यूज़! इंडिया टीवी जितनी क्षमता तो खैर नहीं है इसमे लेकिन सर दर्द या पागलपन के लिए इसका प्रयोग किया जा सकता है। मेहमान घर से नहीं टल रहे? सिंपल। टीवी पर स्टार न्यूज़ लगाइए फ़िर देखिये मेहमान भले ही फेविकोल का जोड़ लगा के बैठे हों, कैसे नहीं भागते!

कह नहीं सकता कि इससे पागलपन का इलाज सम्भव है या नहीं, एक प्रयोग यहाँ भी कर के देखा जाए.

ये आईडिया पेटेंट करवाना चाहिए, कल को ग़लत हाथों में पड़ गया तो दुःख ही दुःख रह जाएगा, फायदा किसी और को मिलेगा!

शुक्रवार, 5 सितंबर 2008

बिहार बाढ़ त्रासदी: सहायता कैसे करें?

अब समय बड़ी बड़ी बातें करने का नहीं, बिहार की मदद करने का है, और वो भी जल्दी से जल्दी!

यदि आप बाढ़ पीड़ितों की सहायता करना चाहते हैं पर नहीं जानते कि स्वयं जाकर आप कहाँ और कैसे काम कर सकते हैं या ये नहीं समझ पा रहे कि सामान या धनराशि किसे और कैसे भेजें तो इस लिंक पर क्लिक कीजिये।

यदि आपके पास कोई और विकल्प या अच्छी जानकारी है जो ऊपर दिए गए लिंक से आपको नहीं मिली तो कृपया मुझे ज़रूर बताइये। यदि आप के शहर में ज़रूरी सामान एकत्रित किया जा रहा है बिहार भेजने के लिए तो मुझे ज़रूर बताएँ क्यूंकि कई लोग सामान देना चाहते हैं पर नहीं जानते कि उसे बिहार भेजा कैसे जाए।

शनिवार, 30 अगस्त 2008

क्यूँ छोड़ दिया है इस देश ने बिहार को?

'बाढ़ में अब लोगों की दिलचस्पी नहीं रही!' मधेपुरा से एन डी टी वी इंडिया के संवाददाता रवीश कुमार कह रहे थे, कि महानगरों में बिहार की इस आपदा के प्रति उदासीनता की शायद यही वजह है। पानी और लोगों से घिरे रवीश बार बार यही पूछ रहे थे कि क्या हो गया है इस बार कि ऐसी भीषण त्रासदी को इस देश ने लगभग सिरे से दरकिनार कर दिया है।

समझ में तो मुझे भी नहीं आ रहा। ४० लाख लोग बाढ़ की वजह से बेघर हो गए हैं। यूँ तो बाढ़ हर साल आती है, हर बार १-२ महीने के लिए लोग घरों को छोड़ कर सुरक्षित स्थानों पर जाते हैं, पर इस बार शायद लौटने के लिए कोई घर ही नहीं बचेगा। हर रोज़ लोग मर रहे हैं, अभी भी हजारों लोग घरों की छतों पर फंसे हुए हैं, कई लोगों तक किसी तरह की राहत नहीं पहुँची है पर न जाने क्यूँ मीडिया के लिए यह ख़बर अभी से बासी हो गयी है। भाषाई मीडिया तो हर राज्य में सिर्फ़ अपने प्रदेश की हदों तक ही सीमित होना जानता है, लेकिन राष्ट्रीय मीडिया का क्या? २४-घंटे चलने वाले हिन्दी भाषी न्यूज़ चैनलों को क्या हुआ? शायद आज तक, इंडिया टीवी और स्टार न्यूज़ जैसे चैनल किन्हीं पंडित जी या तांत्रिक को खोज रहे होंगे जो बाढ़ की वजह 'शनि महाराज का प्रकोप' बताएँ!

और शायद इसी वजह से देश की जनता के लिए इतनी बड़ी विपदा सिर्फ़ ढाई मिनट का समाचार बन कर रह गयी है और उन ४० लाख लोगों का दर्द अनजान!

न इसबार कहीं से कोई सहायता की अपील हो रही है, न कहीं धन/कपड़े /खाद्यान्न/नाव आदि दान करने की। कुछ हो रहा है तो वही जो हर बार होता है, राजनीति, दबंगई और बयानबाजी! तो जहाँ प्रभावित जिलों में दबंगों द्बारा नावों पर कब्ज़ा किए जाने की खबरें हैं और राहत शिविरों में चोरी और ख़राब भोजन दिए जाने की शिकायतें हैं वहीं राजधानी पटना में नेताओं के बयानों की सीडी अखबारों के दफ्तर तक नियमित पहुँच रही हैं।

लेकिन वीकएंड मनाते बाकी देश को क्या फर्क पड़ता है. नीचे देखिये 'देश की सर्वश्रेष्ठ न्यूज़ वेबसाइट' पर बाढ़ की एकमात्र ख़बर कैसे दी गयी है:

रविवार, 24 अगस्त 2008

मेरे पैर का लिम्फोसर्कोमा ऑफ़ द इनटेस्टाइन

हाँ जी हमको भी पता है कि लिम्फोसर्कोमा ऑफ़ द इनटेस्टाइन पैर में नहीं होता, सर में होता है। 'मुन्ना भाई एम बी बी एस' हमने भी देखी है, उसमे वो सीन है न जिसमे संजय दत्त सिर का एक्स-रे देख के बताते हैं कि बचने का कोई चांस नहीं है, इसको लिम्फोसर्कोमा ऑफ़ द इनटेस्टाइन हो गया है! मैं तो कहता हूँ जी, कि ये डॉक्टर बेकार ही ५ साल झक मारते हैं, हमें देख लो, फिल्में देख देख के ही इत्ती बड़ी बिमारी का ज्ञान हो गया।

वैसे एक बात सच्ची बोलें, हमको पैर में लिम्फोसर्कोमा ऑफ़ द इनटेस्टाइन नहीं हुआ है, लेकिन अगर हम पहले सच बता देते कि हमारे पैर में 'प्लान्टर फाआइटिस' हुआ है तो आप मेरी यह (पैर)दर्द भरी दास्ताँ पढ़ते? नहीं पढ़ते!

तो जी जब हम्पी से हम लंगडाते हुए वापिस हुए, तो पैर डॉक्टर को दिखाना ज़रूरी हो गया। दर्द बहुत ज़्यादा था, लेकिन सूजन न होने की वजह से यह तो लगभग पक्का था कि कुछ टूटा फूटा नहीं है। लेकिन जब एक बार के २०० रुपये लेने वाले डॉक्टर ने एक्स-रे तक के लिए नहीं कहा, और बस कुछ पेन किलर दे के हमें टरका दिया तो मानो बिजली गिर पड़ी! २०० रुपये भी गए और डॉक्टर ने ढंग से देखा तक नहीं। इतना दुःख तो तब भी नहीं हुआ था, जब एक बार अंगूठे के दर्द के लिए डॉक्टर ने दांत के ऑपरेशन के लिए कहा था।

बहरहाल जब दूसरी बार इस डॉक्टर ने बिना कुछ वजह बताये यह कहा कि ठीक होने में २-४ महीने लग सकते हैं, या शायद कभी भी ठीक न हो तो मैंने 25o रुपये फीस वाले डॉक्टर को दिखाने का फ़ैसला किया। आप यकीन नहीं करेंगे कि जब मैं इस क्लीनिक से निकला तो कितना खुश था। डॉक्टर ने बताया कि मुझे प्लान्टर फाआइटिस हुआ है और सिर्फ़ इक्सारसाईज़ ही इसका इलाज है। वो तो उसने एक और लंबा सा नाम बताया था, पर वो समझ में ही नहीं आया। जी तो किया कि बोलें भइया एक बार फ़िर से बोलना तो, रिकॉर्ड कर लें! और कुछ इन्फ्लेशन जैसा बोला, बाद में समझे कि वो इन्फ्लेशन नहीं, 'फ्लामेशन' था.

कब से दिल में अरमान था कि एक लंबे नाम वाली बीमारी हो, जिसको चार लोगों के बीच बताएँ तो लगे कि हाँ भाई हमारा भी कुछ स्टेटस है। फ़िज़िओथेरेपी वगैरह जैसे अमीरों वाला इलाज हो, भले ही फ़िज़िओथेरेपी के नाम पे गरम पानी में नमक डाल के सिकाई ही करनी हो. दिल में खुशी का ठिकाना नहीं था, कि हमको कोई मामूली चोट, मोच नहीं लगी है। बड़ी बीमारी है जो सिर्फ़ ख़ास लोगों को लगती है।

इसके बाद तो हमने नेट खंगाल डाला, इसके बारे में जानकारी इकठ्ठा करने के लिए। डॉक्टर की बताई बातों के अलावा भी जो सही लगा वो सब कर रहे हैं।

लेकिन जब से लंगड़ाना बंद हुआ है, कोई पैर के बारे में पूछता ही नहीं है, हम बीमारी के बारे में बताएँ भी तो किसको। अब लंबे नाम वाली बीमारी का हम करें क्या। कोई फायदा ही न हुआ।

तो अब आपका ये फ़र्ज़ बनता है कि हमारी सेहत के बारे में पूछो, पैर के बारे में पूछो, इलाज के बारे में भी पूछो। किसी फ़िल्म डाइरेक्टर से जान पहचान हो तो हमारी बीमारी पर भी फ़िल्म बन सकने का चांस हो तो बताओ। कमीशन वमीशन का अपन बाद में देख लेंगे।

देश में प्लान्टर फाआइटिस और अन्य लंबे नाम वाली बीमारियों के लिए काफ़ी स्कोप है! लिम्फोसर्कोमा ऑफ़ द इनटेस्टाइन काफ़ी कॉमन हो गया है न..

गुरुवार, 21 अगस्त 2008

कुछ बदला बदला सा है...

बचपन में हिन्दी में शब्दार्थ मुझे बड़े बोरिंग लगते थे। हर चैप्टर के बाद शब्दार्थ रटने पड़ते थे। वैसे मेरी हिन्दी काफ़ी अच्छी थी सो ज़्यादा समस्या नहीं होती थी। शिशिर जैसे लोग जिन्होंने 'चक्कर' को शुद्ध करके 'चक्र' लिखने के बजाय 'शक्कर' लिखा था, वो तो खैर थे ही अलग लीग में!

"कुछ के अर्थ समझ में आते हैं, कुछ के नहीं पर हर शब्द कुछ तो ज़रूर कहता है" और ऐसे ही कुछ शब्दों के साथ शुरू हुआ 'शब्दार्थ'। पता नहीं किसको क्या समझ में आया और क्या नहीं, किसको क्या बोरिंग लगा पर मैं कुछ न कुछ कहता ही रहा। मुझे अब भी समस्या नहीं हुई :)

पर कुछ न कुछ तो बदलना चाहिए ही, सो यह ब्लॉग भी बदल गया है। नाम बदल गया है, रंग रूप भी नया है पर शब्द वही रहेंगे क्यूंकि उन शब्दों को उगलने वाला मैं जो नहीं बदला!

यह नाम 'कभी यूँ भी तो हो' और इसके आगे लिखी पंक्ति मुझे ख़ास पसंद है। जगजीत सिंह के एक एल्बम 'सिलसिले' में एक ग़ज़ल है इसी शीर्षक से। इंटर के दिनों में विकास और मैं अपनी नज़र में सबसे बड़े संगीत विश्लेषक थे, यानी म्युज़िक रिव्यूअर। वो जगजीत सिंह का बड़ा भारी प्रशंसक था और हर कैसेट खरीदता था। मैं भी सुन लिया करता था। इस एल्बम को लेकर बड़ी बहस होती थी, मुझे सिर्फ़ यही एक ग़ज़ल पसंद आयी थी उस एल्बम से, और विकास यह सुनने को तैयार नहीं था कि जगजीत सिंह के एल्बम की बाकी गज़लें बकवास थी!

बहरहाल, वो दिन अभी भी झाड़ पोंछ के रखे हैं, कभी कभी देख लिया करता हूँ। इस ब्लॉग का नाम रखने की बात आयी तो यह पंक्तियाँ याद आ गयीं।

काफ़ी कुछ कह दिया, आपने काफ़ी कुछ सुन लिया। ठीक है, अब बताना कि नयी बोतल में पुरानी शराब कैसी लगी। वैसे कहते हैं कि शराब जितनी पुरानी होती है, उतना ही नशा चढ़ता है!

शुक्रवार, 15 अगस्त 2008

भारत और इंडिया: मेरे कैमरे की नज़र से!

६१ वर्ष स्वतंत्रता के, ६००० वर्ष अस्तित्व के। भारत एक ऐसा देश है, जिसे शब्दों में विस्तृत नहीं किया जा सकता, और ६ चित्र होते ही कितने हैं! पर देखिये एक नज़र भारत को मेरे कैमरे की नज़र से।


इंडिया बनाम भारत


चमकती दमकती महँगी शॉपिंग मॉल से लेकर 'थोक भाव' वाली थोक बाज़ार, हर किसी के लिए हर चीज़ उपलब्ध है। बस देने के लिए दाम होने चाहिए। और यही उपभोक्तावाद है जो एक तरफ़ तो इंडिया को आसमान छूने का जोश और (आत्म-मुग्ध होने की हद तक) आत्म-विश्वास दे रहा है और दूसरी तरफ़ उसे अनजान बना रहा है भुखमरी, गरीबी और भ्रष्टाचार से जूझते भारत से!



३३ करोड़ या 'सिर्फ़' ३३ करोड़

करीब ११० करोड़ की आबादी वाले इस देश में पूजने के लिए आपको हर रंग-रूप, वेश भूषा, जाति धर्म के देवी देवता, साधू, संत, बाबा, पीर सब मिलेंगे। सड़क के बीचों-बीच 'समाधि' या 'मजार' होना तो बिल्कुल साधारण बात है, और किसी अधिकारी की मजाल नहीं कि इनको हटा सके। लेकिन जाति ,धर्म और मज़हब के नाम पर की गयी वोट बैंक की राजनीति ने इस देश को जितने ज़ख्म दिए हैं उनको भरने में वक्त को भी कितना वक्त लगेगा, कोई कह नहीं सकता!

देस मेरा रंगीला

किसी भी विदेशी से पूछिए, १० में से ९ बार, या सुनील गावस्कर की ज़बानी कहें तो १९ में से २० बार, जवाब होगा 'भारत के रंग'। इसे किसी भी नज़रिए से देखिये, विविधता तो है!


अरे हुज़ूर, वाह ताज बोलिए!

ताज महल 'प्रेम का प्रतीक' कभी रहा होगा, मेरी नज़र में तो ताज महल अब इन चीज़ों का प्रतीक है:


१) भारत में मोबाइल और इन्टरनेट का फैलता विस्तार: नहीं तो पिछले साल '७ अजूबों' में हमने इसे चौथा स्थान कैसे दिलाया?

२) लालच में अंधी और मूर्खता की राजनीति: मायावती ने अपनी जेबें भरने के लिए ताज महल को लगभग नष्ट कर डाला था।

३) मुश्किलों में भी शान से जीवन जीना: इतने धुएँ, प्रदूषण और मूर्ख राजनीतिज्ञों से घिरे होने के बाद भी ताज शान से खड़ा है!

आराध्य!


राज कपूर से ले कर रजनीकांत भारतीय सिनेमा ने लम्बी छलाँग लगाई है। और हाँ, मैं सिर्फ़ हिन्दी सिनेमा की बात नहीं कर रहा, हर भाषा के सिनेमा के अपने सितारे हैं, अपना एक वजूद है, सपने हैं और उन सपनो को देखने-दिखाने वाले हैं।

मुस्कान



इस फोटो को मैं किसी भी तरह से देख सकता था। यह तस्वीर उन लाखों बच्चों में से किसी की भी हो सकती है जो शिक्षा से वंचित और कम उम्र में काम करने को मजबूर हैं, विकास के कारण अमीरों और गरीबों के बीच बढ़ते अन्तर की हो सकती थी, लेकिन मैं इस फोटो को देखता हूँ, उस बच्चे के चेहरे पर फ़ैली मुस्कान के लिए। मुस्कान जो कि उस मासूमियत, विश्वास और सपनों का प्रतीक है, जो अभी भी कुछ हद तक हमारे अन्दर बची है।

स्वंत्रता दिवस की शुभकामनाएं!

मंगलवार, 12 अगस्त 2008

राठौर साब आप हीरो थे, हैं और रहेंगे!

मेजर राज्यवर्धन राठौर उस प्रतियोगिता के फाइनल में जगह नहीं बना सके जिसमे उन्होंने चार साल पहले रजत जीता था। उनको भी मालूम है कि कितनी ज़्यादा उम्मीदें उन पर टिकी थीं! कल अभिनव बिंद्रा के शानदार प्रदर्शन के बाद हर कोई सीना फुला के बोल रहा था, अरे अभी तो राठौर का खेलना बाकी है। हमने पहले ही मान लिया था कि कम से कम सिल्वर मैडल तो अपना ही है, बस राठौर का शूटिंग रेंज में उतरना भर बाकी है।

लेकिन हर दिन एक समान नहीं होता। कल जहाँ खुशी के आँसू थे, आज निराशा के हैं। पढ़ा कि मेजर राठौर अपने भविष्य में खेलने पर फ़िर से विचार करने की बात कह रहे हैं। मुझे पता नहीं, कि वो भविष्य में फ़िर से निशानेबाजी के लिए ओलंपिक में जाएंगे या नहीं, किसी भी और प्रतियोगिता में शिरकत करेंगे या नहीं पर जो भी हो, मुझे सिर्फ़ एक बात कहनी है।

राठौर साब आप मेरे हीरो तब भी थे जब आपने एथेंस में सिल्वर जीता था और आज भी हैं और हमेशा रहेंगे। निशाना कभी सही होता है, कभी नहीं होता है। माना किआपसे जितनी उम्मीदें थीं आप उन पर खरे नहीं उतर सके। लेकिन चार साल इतना लंबा अरसा नहीं होता कि हम वो दिन भूल जाएं जिस दिन हमें एक नया नायक मिला था। बहुत सारी उम्मीदें ख़त्म ज़रूर हो गयी हैं, पर उन उम्मीदों को जन्म भी तो आपने ही दिया था।

उन सब उम्मीदों के लिए ही सही, आप मेरे हीरो रहेंगे!

गुरुवार, 7 अगस्त 2008

इस देश का भगवान् भी भला नहीं कर सकते?

हर साल कोई न कोई ऐसा दौर ज़रूर आता है, जब हर तरफ़ से बुरी खबरों के सिवा सुनने को कुछ नहीं मिलता। लेकिन इतना बुरा और कठिन समय देश के लिए शायद पिछले कई वर्षों में नहीं आया होगा।
और हर चीज़ पर राजनीति! संसद में नोट हों या बम धमाके। रामसेतु हो या अमरनाथ भूमि। हर चीज़ पर राजनीति! (पढ़िये रवीश कुमार का लेख: शिवराज का जूता और सुषमा की बोली )
लोग मरते हो मरें, देश जलता हो जले, हमें तो बस हमारे वोट चाहिए। कैसे भी!

मौजूदा केन्द्र सरकार के राज में गृह मंत्रालय जितना लाचार, निकम्मा और बेबस नज़र आया है, उतना कभी आया होगा, मुझे तो याद नहीं पड़ता। सिमी पर प्रतिबन्ध हटने के जो कारण आज समाचार पत्रों में आए हैं उनसे साफ़ मालूम पड़ता है कि गृह मंत्रालय ने न्यायालय में इस मुद्दे पर बेहद लापरवाही दिखाई है। लगातार होते बम धमाकों और आतंकवादी संगठनों के साथ सिमी के बढ़ते रिश्तों के बाद भी उन पर कार्यवाही करने में सरकार का यह आलस अपराध से कम नहीं है!
और कल अमरनाथ मुद्दे पर सर्व-दलीय बैठक के बाद भी प्रेस को विदेश मंत्री प्रणव मुख़र्जी ने संबोधित किया। मुझे तो समझ नहीं आता, जम्मू कश्मीर से सम्बंधित कोई विषय विदेश मंत्रालय को क्यूँ संभालना पड़ रहा है। गृह मंत्री शिवराज पाटिल कहाँ थे? पाटिल जैसे अशक्त व्यक्ति को गृह मंत्रालय जैसा महत्त्वपूर्ण और संवेदनशील मंत्रालय क्यूँ दिया गया है, इसका सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही जवाब है कि वो सोनिया गांधी के 'वफादार' हैं।

मैं सोनिया गांधी और उनके परिवार के भारत प्रेम पर कोई अविश्वास नहीं करता लेकिन उनको अब यह सोचना चाहिए कि इस बेहद कठिन दौर में जब देश अन्दर और बाहर हर तरफ़ से निशाने पर है, उन्हें वफादारी को ज़्यादा तरजीह देनी चाहिए या देश को।

सरकार के सहयोगी दल और भी महान हैं! मुलायम सिंह और लालू यादव के लिए सिमी और आर. एस. एस. एक समान हैं और उनके अनुसार तो सिमी पर प्रतिबन्ध होना ही नहीं चाहिए!

और बी जे पी के बारे में क्या कहा जाए! वाजपायी जी के हटने के बाद से यह पार्टी अपने ही अन्तर विध्वंस का शिकार है। आडवाणी को अब सिर्फ़ प्रधान मंत्री की कुर्सी ही नज़र आती है और देश-हित का विचार सिर्फ़ बातों में झलकता है। कुछ महीने बाद लोकसभा चुनाव होने वाले हैं, तो सरकार को हर सम्भव मुद्दे पर घेरना है, भले ही इससे देश में साम्प्रदायिकता भड़के और दंगे हों। उनकी बला से! आख़िर अयोध्या के बाद कुछ तो चाहिए यू पी में मायावती से सीट बचाने के लिए।

नैना देवी मन्दिर में हादसे में १५० लोग मारे गए, गौतमी एक्सप्रेस में आग लगने से ३१ लोग जल गए, बिहार में ट्रक उलटने से ६५ मजदूर मारे गए...हे भगवान्।

पर सुप्रीम कोर्ट ने तो कहा कि 'इस देश का भगवान् भी भला नहीं कर सकते' तो फ़िर...

मंगलवार, 24 जून 2008

याहू और गूगल के भारत संस्करण, बड़े काम की चीज़!

ऑनलाइन सर्च के दिग्गजों के भारतीय संस्करण अपनी अलग पहचान बनाने लगे हैं।

याहू इंडिया सर्च में अब आप खोज के सभी परिणामों को एक पोर्टल के रूप में देख सकते हैं। यानी कि सारे हाइपर लिंक्स, फोटो और विडियो एक तरतीब से एक पेज में आ जाएंगे। उदहारण के लिए मैंने 'यूरो २००८' खोजा तो ये पेज आया:

यह सुविधा सिर्फ़ याहू भारत पर उपलब्ध है क्यूँ कि इसे याहू भारत ने बनाया है। आगे शायद इसे विश्व भर के लिए उपलब्ध कराया जाए।

याहू ने एक और सेवा शुरू की है जिससे आप अपने शहर से जुड़ी सारी खबरें, मौसम का हाल, यातायात मार्ग और याहू आन्सर्स के सवाल एक पोर्टल के रूप में देख सकते हैं। देखिये यहाँ

गूगल ने अपनी फ़ोन सर्च सेवा भारत में शुरू कर दी है। मुझे बंगलोर के बारे में नहीं पता, पर हैदराबाद में आप इस कर-मुक्त संख्या: 1-800-41-999-999 पर काल कर सकते हैं और फ़िल्म शो, रेस्त्रां आदि के बारे में जानकारी पा सकते हैं। यह जानकारी आपको एस एम एस द्वारा भी भेजी जाती है। यह जानकारी ऑनलाइन आप गूगल लोकल पर देख सकते हैं ही!


तो इस पूरी कहानी का लब्बोलुआब यह कि, कभी कभी याहू भारत और गूगल भारत के दर्शन भी कर लिया कीजिये, काम की काफ़ी चीज़ें होती हैं यहाँ!

रविवार, 1 जून 2008

दारू के ठेके पे कोयल बोली

तो जी बात जे भई कि हमारे घर के पास जो 'बार-कम-रेस्टोरेंट' है (जो असलियत में रेस्टोरेंट कम बार ज़्यादा है) उसके 'बगीचे' में एक युक्लिप्टस का पेड़ है, उस पर बैठ कर कोयल गा रही थी (अच्छा एक बात बताओ, कोयल के बोलने को 'गाना' क्यूँ कहते हैं?)

छोटी सी बात है पर बड़े सवाल खड़े हो गए!

क्या ये पहली कोयल थी जो युक्लिप्टस के पेड़ पर बैठ के बोल रही थी? अगर हाँ तो क्यों? क्यों आज तक कोयलों ने इन मासूम पेड़ों के साथ भेदभाव किया? वैसे अगर इतिहास पर नज़र डालें तो कोयल को हमेशा अमराइयों में ही गवाया गया है। कभी सुना नहीं कि फलां कोयल अमरुद के पेड़ पर गाती पायी गयी या अमुक प्रेमी युगल उस नीम के पेड़ के नीचे मिलते थे जिसके ऊपर कोयल गीत गाती थी। किसी कवि ने तो यहाँ तक लिखा है कि आम की मिठास का कारण ही कोयल का गाना है। क्या बेवकूफी है, अगर ऐसा होता तो एक एक गन्ने के ऊपर तीन कोयलों को बैठ कर टेर लगानी पड़ती! कृषि मंत्रालय को इस कवि के विरुद्ध कोई एक्शन लेना चाहिए। कहीं चीनी मंत्रालय के किसी मूर्ख मंत्री ने इस बात पे यकीन कर लिया तो इतनी कोयलें कहाँ से आएंगी?

और अगर यह वाकई पहली कोयल थी जो युकेलिप्टस के पेड़ पर गाना गा रही थी तो क्या वजह थी इस कोयल ने अपने समाज की रीति रिवाज़ को छोड़ कर, आम के पेड़ों से नाता तोड़ कर इस पेड़ पर गाना स्वीकार किया? क्या इसकी वजह कोई प्रेम प्रसंग था (किसी दूसरे पक्षी के साथ, जो कोयल समाज के ठेकेदारों को नागवार गुज़र रहा था) या पेड़ के मालिकों ने कोयल को रिश्वत दी थी? या फ़िर कोयल का मानसिक संतुलन बिगड़ने की वजह से वो आम और युकेलिप्टस में अन्तर करना भूल गयी थी?

और अगर यह पहली कोयल नहीं थी जिसने ऐसा कदम उठाया (माने अपना छोटा सा पंजा उठाया) तो आज के पहले यह सवाल, सवाल क्यों नहीं बना? मीडिया ने इस सामाजिक परिवर्तन को हम सबसे क्यों छुपा कर रखा?कोयल समाज की इस क्रांति को दुनिया के सामने क्यों नहीं लाया गया?

बहरहाल अब यह बात मेरी नज़र में आ गयी है, आप फिक्र मत कीजिये। किसी हिन्दी 'समाचार' चैनल की तरह मैं इस ख़बर की तह तक पहुँच कर ही दम लूंगा। फ़िर कोयल क्या कौवा भी युकेलिप्टस के पेड़ पर नहीं गा सकेगा!

रविवार, 25 मई 2008

"अरे भाई वो मर गया है ...

..तुम क्यूँ मर रहे हो?" प्रदीप (नाम परिवर्तित) से कुछ ऐसा सुनने को मैं काफ़ी देर से इंतज़ार कर रहा था, पर अभी तक वो ही मेरी सुने जा रहा था
दरअसल "वो" मरा नहीं, मार डाला गयाउसका नाम ललित मेहता था, आई आई टी रुड़की से इंजीनियरिंग की थी और विदेश जा कर मोटे वेतन पर काम करने के बजाये, वापिस बिहार के पलामू जिले में जा कर ग्राम स्वराज अभियान नाम की एक सामाजिक संस्था के साथ काम करने लगापलामू में राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई और जांच की मांग कीजांच से एक दिन पहले छतरपुर में उसको सदा के लिए शांत कर दिया गया! कोई और नाम याद आए क्या? कोई सत्येन्द्र दुबे या मंजुनाथ जैसे नाम?

और मैं क्यूँ मर रहा था? दरअसल में कोशिश कर रहा था कि किसी तरह से यह ख़बर राष्ट्रीय मुद्दा बनेराष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना में कितना ज़बरदस्त भ्रष्टाचार है, यह किसी से छुपा नहीं हैइसीलिए में एनडीटीवी और सीएनएन-आईबीएन तक यह ख़बर पहुँचाने की कोशिश कर रहा थाएन डी टी वी के संजय अहिरवाल ने बताया कि यह ख़बर उनका चैनल एन डी टी वी इंडिया दिखा चुका हैसी एन एन - आई बी एन के राजदीप सरदेसाई ने कहा कि ख़बर मैं उनके चैनल के विनय तिवारी को भेज दूँखैर यह सब तो हो गया

और यही सब मैं प्रदीप को बता रहा था, कि अब इसको फ़ोन किया, अब इसको एस एम् एस भेजा जब उसने कहा "अरे भाई वो मर गया है, तुम क्यूँ मर रहे हो?" बात सही भी थी
उससे मेरा क्या सम्बन्ध था? संबंध छोडिये कभी नाम भी नहीं सुना था। और बिहार में तो हमेशा ही किसी न किसी की हत्या होती रहती है। क्या हर किसी के मरने या मारे जाने की ख़बर लेकर में ऐसे ही टीवी चैनलों के पास दौड़ता रहूँगा? पर क्या करूं प्रदीप, तुम्हारी नेक सलाह मेरी समझ में नहीं आती।
ऐसे ही किसी दोस्त ने ललित, सत्येन्द्र और मंजुनाथ से भी यही कहा होगा लेकिन उन्होंने भी नहीं सुनी किसी की। लेकिन मैं नहीं चाहता कि फ़िर कोई और नाम जुड़े इस लिस्ट में। और वैसे भी मैं मर नहीं रहा.

बुधवार, 21 मई 2008

हॉकी टीम को बधाई. अगली बार फाईनल जीतना है!

शायद के पी एस गिल के जाने के साथ ही किस्मत फ़िर से हमारी हॉकी पर मेहरबान होने लगी है! अब बारह साल बाद अजलान शाह कप के फाईनल में प्रवेश करने को आप क्या कहेंगे। बिल्कुल नए खिलाड़ियों से सजी यह टीम फाईनल में अर्जेंटीना से २-१ से हारी वो भी गोल्डेन गोल के ज़रिये।

IPL से मंत्रमुग्ध हिन्दी मीडिया को तो शायद याद भी नहीं कि हॉकी भी कोई खेल होता है, पर हम सब की तरफ़ से हॉकी टीम को बहुत बहुत बधाई। अब उम्मीदें बढ़ा दी हैं, तो उन पर खरे भी उतरना और अगली बार फाईनल जीत के आना!

बुधवार, 14 मई 2008

मंत्री जी की सफलता

"जिस उद्देश्य से ये विस्फोट किए गए थे वे पूरे नहीं हुए हैं और यही हमारी सफलता है।"

यह शब्द हैं माननीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल साहब के, जयपुर में हुए विस्फोटों के बारे में। अब बोलो इनसे ज़्यादा सफल कार्यकाल है किसी और गृह मंत्री का? ऐसी जाने कितनी सफलताएं पाटिल साहब के खाते में दर्ज हैं। वैसे विस्फोट करने वालों के क्या उद्देश्य थे वो तो पाटिल साहब जानते ही हैं, वो यह भी जानते हैं " कि जयपुर के विस्फोटों में किन तत्वों का हाथ है।"

अभी नाम सिर्फ़ इसलिए नहीं बता रहे कि जांच चल रही है! वैसे उनके डिप्टी यानी गृह राज्य मंत्री श्री प्रकाश जायसवाल ने "एक क़दम आगे बढ़ते हुए कहा है कि इन 'आतंकी हमलों के तार पड़ोसी देश से' जुड़े हुए हैं", अलबत्ता वो "पड़ोसी देश" कौन सा है, वो उन्होंने नहीं बताया। शायद इसे भी सफलता से जोड़ कर बताने की तैयारी में होंगे।

वैसे अच्छा होता कि पाटिल साहब और जायसवाल साहब अपनी सफलता का कोई पैमाना बता देते। और कितने शवों को कन्धा देना है, और कितने घर उजड़ने हैं, कितनी मांगों का सिन्दूर मिटना है, कितने जीवन ज़िंदगी भर के लिए अपंग होने हैं, इन सब की कोई संख्या अगर मंत्री द्वय बता देते तो दिल थोड़ा और कड़ा कर लेते हम।

मंत्री जी की सफलता के लिए कुर्बानी देने को आम जनता तो बैठी ही है!

रविवार, 27 अप्रैल 2008

लीडर्स बनाम चीअरलीडर्स !

अभी कुछ ही दिन पहले ख़बर पढी थी कि संसद में मंहगाई पर विवाद के समय सदन लगभग खाली था, और बाहर सारी पार्टियां आम आदमी की हितैषी बनी चक्का जाम करने में जुटी थीं । यह और बात कि उनकी इस ड्रामेबाजी से आम आदमी को सिर्फ़ परेशानी ही हुई। कौन सी नयी बात है!

पर अभी IPL में चीअरलीडर्स के कपड़ों पर बहस करने में कोई नेता किसी से पीछे नहीं रहा। जो बात कोई मुद्दा ही नहीं थी अचानक पहले पन्ने की सुर्खी बन गयी! आजकल नेताओं का टीवी प्रेम किसी से छुपा नहीं है, सदन में जाकर सवाल जवाब करें न करें, कैबिनेट कमेटी की बैठक में जाएं न जाएं पर टीवी स्टूडियो में बैठ कर बहस करवा लो! २४ घंटे तैयार मिलेंगे। रवि शंकर प्रसाद, राजीव प्रताप रूडी, गुरुदास दास दासगुप्ता वगैरह ऐसे ही कुछ टीवी नेता हैं।

नेपाल में माओवादी सरकार बना रहे हैं, त्रिपुरा में फ़िर से बर्ड फ्लू फैलने के आसार हैं, तेल के दाम रोज़ नयी ऊँचाई छू रहे हैं, दिल्ली में BRTS परियोजना बुरी तरह विफल हो गयी, भोजन संकट मुंह बाए खड़ा है, हॉकी की दुर्दशा है न के पी एस गिल इस्तीफा देने को तैयार नहीं हैं और न जाने क्या क्या समस्याएं सामने खड़ी हैं, पर हमारे महान नेताओं के लिए सबसे बड़ी चिंता का विषय हैं चीअर लीडर्स

अब कोई इनसे यह पूछो कि यह लोग कुछ काम भी करते हैं या बस IPL के मैच ही देखते हैं! लेकिन सीधी सी बात यह समझो कि किसी गंभीर मुद्दे पे सरकार को घेरने से चर्चा तो मिलेगी नहीं, इस तरह के घटिया मुद्दों पर किसी टीवी कैमरे के आगे २ मिनट नारा लगा दिया तो हर समाचार चैनल पर सुर्खियों में आ ही जाएंगे। वैसे भी मीडिया को गंभीर मसलों को भी मिर्च मसाला लगाने की आदत हो गयी है , और इस मुद्दे पर तो ख़बर के बहाने काफी कुछ दिखाने सुनाने को मिलेगा!

और देखने को जनता तो बैठी ही है!

बुधवार, 12 मार्च 2008

कृषि माने क्रिकेट?

(आलोक पुराणिक का बड़ा पंखा (फैन!) हूँ और यह लेख उनको समर्पित!)
जबसे शाहरुख़ खान ५ करोड़ के सपने दिखा के पांचवी क्लास के सवाल पूछने लगे हैं तबसे पांचवी क्लास का रुतबा बहुत बढ़ गया है। स्कूल में बड़ी कक्षाओं के बच्चों से पूछते हैं, क्या तीर मार लिया तुमने पांचवी पास करके।हमें देखो बिना पी आर वालों को पैसे दिए हमारा इतना चर्चा है! मुझे ऐसी ही पांचवी कक्षा में बच्चों को कृषि के बारे में बताना है।
मैं कहता हूँ बच्चों कृषि का इस देश में काफ़ी महत्त्व है और कृषक काफ़ी महत्वपूर्ण व्यक्ति। मैं बच्चों को यह नहीं बता रहा कि इस महत्वपूर्ण व्यक्ति का महत्त्व सिर्फ़ चुनावी वर्ष में ही देश को पता चलता है!
एक बच्चा सवाल पूछ रहा है "सर यह कृषि क्या क्रिकेट का हिन्दी नाम है? क्र से क्रिकेट, क्र से कृषि"। बच्चा अपनी बुद्धिमानी पर काफ़ी खुश हो रहा है। "नहीं नहीं कृषि का क्रिकेट से कुछ लेना देना नहीं है" मैं कहता हूँ। दूसरा बच्चा खड़ा हो गया है "लेना देना कैसे नहीं है सर। जी. के वाले सर ने बताया था कि कृषि मंत्री कोई शरद पवार हैं पर शरद पवार तो क्रिकेट बोर्ड के चेयरमैन हैं तो क्या क्रिकेट बोर्ड के चेयरमैन को हिन्दी में कृषि मंत्री कहते हैं?"
"नहीं नहीं बच्चों ऐसा नहीं है। जो लोग कृषि का काम करते हैं, उनको कृषक कहा जाता है और वो लोग खेत यानी फील्ड्स में फसल उगाते हैं। यह काफ़ी मेहनत का काम है !" मैं समझाने की कोशिश कर रहा हूँ। पर बच्चे सुन ही नहीं रहे हैं।
"क्या बात कर रहे हैं सर! फील्ड में तो क्रिकेट खेली जाती है। धोनी और युवराज दीपिका की फील्डिंग करते हैं। और दोनों ही कामों में काफ़ी मेहनत लगती है !" बाकी बच्चे इस बच्चे की बात पर हंस रहे हैं।
मैं ज़रा नाराज़ होने की एक्टिंग करता हूँ और बच्चे चुप हो जाते हैं। "कृषि मंत्री शरद पवार क्रिकेट बोर्ड के चेयरमैन ज़रूर हैं लेकिन वो कृषि के लिए काफ़ी कुछ करते हैं। सरकार से कृषि के लिए पैसे दिलवाते हैं" मैं बच्चों के मन में शरद पवार की छवि बदलने की कोशिश कर रहा हूँ।
"तो क्या सर वो "कृषक ऑफ़ सीज़न" या "कृषक ऑफ़ मंथ" जैसे अवार्ड्स भी देते हैं? और बेस्ट कृषक को मर्सिडीज़ कार?" एक बच्चा पूछ रहा है। यह बच्चे मेरी बात का सार नहीं समझ रहे!
एक लड़की सवाल पूछ रही है "सर कृषक यानी किसान?" मैं खुश हो गया हूँ, कम से कम किसी को समझ में आयी मेरी बातें! "बिल्कुल सही"। "तो सर जब इतने किसान आत्महत्या कर रहे हैं देश में, तो कृषि मंत्री को क्रिकेट के लिए समय कहाँ से मिल जाता है?"
अब मैं निरुत्तर हो गया हूँ।

शनिवार, 8 मार्च 2008

अब कीजिये ऑफलाइन ब्लॉगिंग!

ऑफलाइन ब्लॉगिंग है क्या? बहुत साधारण सी चीज़ है, जैसे अभी आप किसी ईमेल सॉफ्टवेयर जैसे आउटलुक या मोजिला Thunderbird में अपनी मेल कभी भी लिख कर उसे ड्राफ्ट के रूप में सेव कर सकते हैं और जब चाहे उसे भेज सकते हैं बिल्कुल वैसे ही ये ऑफलाइन ब्लॉगिंग सॉफ्टवेयर आपको सुविधा देता है कि आप कभी भी लिखिए और जब चाहें उसे पोस्ट कर दीजियेअब अगर आप पूछ रहे हैं कि इसमे ख़ास बात क्या है, यह तो आप नोट पैड या वर्ड पैड में भी लिख सकते हैं और जब चाहे उसे अपनी ब्लॉग साईट पर पोस्ट कर सकते हैं, तो ज़रा धैर्य रखिये, अभी बताता हूँ


आप अपने ब्लॉग को एक बार रजिस्टर कर दीजिये यानी ब्लॉग का URL, RSS फीड का URL और लोगिन की जानकारियाँ दीजिये और आपके ब्लॉग की सारी सेटिंग यह टूल अपने आप उठा लेंगेयानी कि जब आप लिखें तो उसी समय देख सकते हैं कि साईट पर जाने के बाद आपको लेख कैसा दिखेगायही नहीं, आपके टैग्स की सूची भी आपको उपलब्ध होगीआपको चाहें तो Technorati टैग्स भी लगा सकते है, किसी पिंग सर्वर को पिंग करने के निर्देश दे सकते हैं और वो सब कुछ कर सकते हैं जो आपको सीधे साईट पर पोस्ट करते समय करते हैं


माइक्रोसॉफ्ट का विन्डोज़ लाइव राइटर और मोजिला का स्क्राईब फायर ऐसे ही दो टूल हैंरजिस्टर करने के लिए आपको इंटरनेट से जुड़ा होना आवश्यक है जिससे कि आपके ब्लॉग की जानकारियाँ उठाई जा सकेंलाइव राइटर तो इंस्टाल करने के लिए भी यह ज़रूरी है!


स्क्राईब फायर में आपको अलग से कुछ इंस्टाल नहीं करना पड़ता और क्यूंकि यह फायरफॉक्स के लिए प्लगिन है, किसी भी ऑपरेटिंग सिस्टम पर चलता हैलाइव राइटर में कुछ सुविधाएं अधिक हो सकती हैं, लेकिन यह सिर्फ़ इंटरनेट एक्सप्लोरर पर ही काम करता है और सिर्फ़ विन्डोज़ के लिए उपलब्ध है

तो अब कभी भी, कहीं भी लिखिए और जब चाहे पोस्ट कीजिये!

बुधवार, 5 मार्च 2008

रामायण और वो दूरदर्शन वाले दिन

आज यूँही बातों बातों में पुराने दूरदर्शन वाले दिनों की बातें चल निकलीं!
और फ़िर कितने सारे पुराने कार्यक्रमों की याद आ गयी। शुरुआत हुई 'रामायण' से। तब मैं बहुत छोटा था और गाँव में था, जहाँ मेरे पापा बिजली विभाग में अभियंता थे। गढी मानिकपुर, प्रतापगढ़ में वो पहला टीवी था जो मेरे घर में आया। इसके बाद तो हर रविवार सुबह मेरे घर का बाहरी कमरा जहाँ से टीवी देखा जा सकता था, पूरी तरह भर जाता था। गाँव भर के जितने लोग उस कमरे में ऐसे बैठ सकते थे कि टीवी देखा जा सके, बैठ जाते थे।
घर के सदस्य अन्दर के कमरे में बैठ कर देखते थे, जहाँ मेरी दादी टीवी के आगे हाथ जोड़ कर बैठती थी!
महाभारत के समय तक भी यही हालत रही। एक दिन जब लगभग पूरे एक घंटे तक 'रुकावट के लिए खेद है' ही देखने को मिला तो लोग कितने निराश हुए, मैं आज तक भूला नहीं हूँ।

गाँव में एक बन्दा था, उसका असली नाम था 'संतोष' पर हम उसे 'हनुमान' कहते थे। चित्रहार देखने ज़रूर आता था और अमिताभ बच्चन के गानों का इंतज़ार करता था। डॉक्टर विश्वकर्मा सलमा सुल्ताना और कुछ और उद्घोशिकाओं के दीवाने थे। बाद में कुछ और घरों में भी टीवी आ गया था और हमारे घर में भीड़ लगना बंद हो गया।

और भी कार्यक्रम थे, 'टीपू सुलतान की तलवार', 'भारत एक खोज', 'तेनालीरामा', 'नुक्कड़', 'सर्कस', 'फौजी' वगैरह वगैरह। रविवार को एक विज्ञान गल्प आधारित कार्यक्रम आता था, 'सिग्मा' जो मुझे बहुत पसंद था। 'सिग्मा' से जुड़ी हुई एक याद है जो हमेशा शर्मसार कर देती है। मेरी दादी का शव रखा था बाहर और मैं अन्दर आकर टीवी पर 'सिग्मा' देख रहा था। किसी ने मुझे डांट कर टीवी बंद कर दिया था, मुझे समझ में नहीं आया था कि मैंने ग़लत क्या किया। बहरहाल!

कितनी सारी यादें हैं उन दिनों की। कितने नाम, कितने चेहरे, कितनी आवाजें जुड़ी हुई हैं। एक दूरदर्शन होता था, सारा परिवार साथ बैठ कर देख सकता था, देखता था। अब तो जितने चैनल हैं उतने टीवी चाहिए कि हर कोई अपने मन का कार्यक्रम देख सके! कमरों के अन्दर ही अन्दर दीवारें बनती जा रही हैं।

चलूँ फ़िर से 'रामायण' का समय हो रहा है!

बुधवार, 6 फ़रवरी 2008

भाग वैलेंटाइन डे आया!

साल का वो समय आ गया है जब मन करता है भाग के तोरा-बोरा की गुफाओं में (अरे वहीं जहाँ ओसामा भैया रहते हैं, जब मुशर्रफ़ साब के घर बिरयानी नहीं खा रहे होते) या फिर बाल ठाकरे के घर में छुप जाऊं! कहीं भी जहाँ अगले हफ्ते भर चलने वाली मीडिया की मिसाइलों से बच सकूं।

आने वाले पूरे हफ्ते हर टीवी चैनल, अखबार, रेडियो स्टेशन और इंटरनेट पोर्टल्स मेरे एकाकी जीवन का जी भर कर मखौल उडाएंगे! हाय वैलेंटाइन डे आने वाला है।

अखबारों में वैलेंटाइन डे के प्रारंभ से ले कर आज तक इसे मनाने के तरीकों पर तो लेख होंगे ही, साथ ही ग्रीटिंग कंपनियों के बढ़ते व्यापार के बारे में भी मनमानी संख्याएं होंगी! अच्छा चलो माना कि इनको नहीं देखोगे लेकिन होटलों, शॉपिंग माल, फिल्म थिएटर, गहने-जेवर की दुकानों के जो पन्ने भर भर के विज्ञापन आएंगे उनसे कैसे आंखें फेरेंगे आप? और हाँ यह सब सिर्फ 'जोड़ों' के लिए।

सभी टीवी कार्यक्रमों की कहानियाँ बे सिर पैर के घुमाव लेंगी ताकि वैलेंटाइन डे मनाया जा सके। यानी कि फिल्मी गानों के साथ बहुत सारे गुलाब और गुब्बारे! वैसे भी आजकल टीवी पर कहानी के नाम पर बचा ही क्या है। यह भी सही।
मगर कमाल तो करेंगे न्यूज़ चैनल! 'विशेष' और 'बड़ी खबर' तो आएंगे ही, हर शहर से सीधा प्रसारण: 'अब हम दर्शकों को लिए चलते हैं रोहतक जहाँ पप्पू सिंह, रिंकी खन्ना को गुलाब देने वाले हैं। हाँ दीपक कैसा माहौल है वहाँ...' (आगे तो आप समझ ही सकते हो!) शिव सेना, बीजेपी, विहिप, बजरंग दल आदि आदि के छुटभैयों की साल भर की उबासी कटेगी और उनसे भी कैमरा मुखातिब होगा। वो जोड़ों को चेतावनी देंगे और फिर कैमरे के सामने तोड़फोड़ का 'प्रदर्शन' करेंगे। (मुझे बड़ा मज़ा आता है जब टीवी कैमरे के सामने लोग पहले से टूटे गमले को लात मारते हैं, हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा!)

रेडियो स्टेशन श्रोताओं की कॉल लेंगे, उनके संदेश सुनाएंगे और उनके पसंदीदा गाने सुनाएंगे। आप तो जी बस घर बैठ के सुनते जाओ! (उसी दिन करें तो अच्छा है, हफ्ते भर किया तो मैं रेडियो फोड़ दूंगा!)

इन सबसे कोई तो बचाओ मुझे! प्लीज़। वैसे दूसरा तरीका भी है, (सिर्फ कन्याओं के लिए): मेरी वैलेंटाइन बन जाइए!