गुरुवार, 2 जुलाई 2015

जहां पुराना हमेशा नया रहेगा

सिया के लिए 'पज़ल' गेम आया तो उसमें एक फोटो पोस्टबॉक्स और डाकिये की थी. अब अपनी ढाई साल की उम्र में बिटिया ने ना कभी पोस्टऑफिस देखा है और ना कभी खाकी वर्दी वाला डाकिया. हमेशा कुरियर वाले 'अंकल' ही आये हैं घर पे, जो डिब्बे दे के जाते हैं और हर डब्बा 'छिया का' होता है, अंदर वाला सामान चाहे जिसका भी हो!

यूं ही मन में विचार आया कि अरसा हो गया, किसी की चिट्ठी आये हुए, या किसी को चिट्ठी लिखे हुए. आख़िरी बार म्यूच्यूअल फंड कंपनियों को पत्र भेजा था, लिफ़ाफ़े में डाल कर, टिकट लगा कर. ये कहानी सिर्फ मेरी नहीं है, बहुतों की होगी. 

ईमेल के आने के बाद से लिफ़ाफ़ा और उसके अंदर का पत्र 'आउटडेटेड' हो गए, लेकिन इंटरनेट पर ईमेल की पहचान अभी भी वही लिफाफा है. गूगल पर 'email icon' सर्च किया तो ये इमेजेज़ आयीं:


ऐसी ही कुछ कहानी 'फ्लॉपी' की है. आज के बच्चे तो क्या, दस-बारह साल के बच्चे भी शायद ही फ्लॉपी के बारे में जानते हों (कंप्यूटर के इतिहास में शायद पढ़ाया जाता हो तो हो) लेकिन हर सॉफ्टवेयर और साइट पर 'सेव' यानी 'फ्लॉपी'. 

और पता क्या, हर गुज़रता हुआ दिन ऐसी कई और रोज़मर्रा की चीज़ों को सिर्फ 'चिन्ह' बनने के करीब लाता जा रहा है. शॉपिंग कार्ट जो कुछ साल में शायद सिर्फ इ-कॉमर्स साइट पे दिखें, लैंडलाइन फोन जो अभी ही इंटरनेट पर कॉल का प्रतीक है घर और ऑफिस से गायब हो जाए, ताले और चाभी घर की सुरक्षा के बजाये इंटरनेट पर सुरक्षा के चिन्ह हों, पर्स और वॉलेट का काम पैसे रखने के बजाये ऑनलाइन वॉलेट की फोटो होना हो. 

सिर्फ कयास ही हैं. पता नहीं और क्या क्या बदल जाएगा. लेकिन इस बदलाव के दौर में भी ये गुज़रे ज़माने की चीज़ें चिन्ह बन कर ही सही, हमें उस ज़माने की याद तो दिलाती ही रहेंगी!

मंगलवार, 30 जून 2015

कुछ भूले कुछ याद रहा

अरसा हो गया कुछ लिखे. हिंदी में तो और भी ज़्यादा.

कभी कभी अपने ही पुराने ब्लॉग पढता हूँ, अच्छे भी लगते हैं. सोचता हूँ फिर से कुछ लिखूं पर लिखा नहीं जाता. पता नहीं क्यूं.

खुद को धोखा भी देना मुश्किल नहीं होता.

"समय नहीं मिलता"
"ऑफिस में बहुत काम है"
"बेटी छोटी है, बैठने ही नहीं देती"

और भी तमाम ऐसे बहाने. सारी ज़िन्दगी ही बहानों से भर गयी है. हर हार के लिए, एक बहाना तैयार मिलेगा. अक्सर सोचता हूँ, कि वो सब जो खो दिया है, वापस लाऊंगा पर क्या और कैसे, इन सवालों के जवाब ही नहीं होते.

और वास्तव में विकर्षणों की कमी नहीं है पर विकर्षित होना तो अपनी कमज़ोरी है.

कुछ तो करना पड़ेगा। बचपन में अपनी लिखी कविताओं की एक डायरी जला दी थी, पता नहीं किस धुन में आ कर. इस ब्लॉग को तो जला नहीं सकता, लेकिन इसको भूल जाना वैसा ही कुछ हो जाएगा!

अपने आप से ये वादा करता हूँ. फिर से लिखूंगा. कई बार ऐसा होगा जब शब्द दिमाग से उँगलियों तक आने से मना कर देंगे पर फिर भी कुछ न कुछ तो लिखूंगा ही.