सोमवार, 2 अक्तूबर 2023

डिमेंटर्स

बाहर इतनी ज्यादा गर्मी नहीं थी पर फिर भी मेट्रो कोच के अंदर कदम रखते ही पूर्वी को एसी की ठंडी हवा अच्छी लगी।अंदर ज्यादा भीड़ नहीं थी और उसको आसानी से सीट भी मिल गई। उसके बाजू में कोई 10-11 साल की एक लड़की थी और उसके साथ शायद उसका छोटा भाई जो 7-8 साल का रहा होगा।

लड़की अपने भाई को हैरी पॉटर की कहानी सुना रही थी। "... तो फिर ना सीरियस ब्लैक अज़्काबान प्रिज़न से भाग जाता है और सब लोग बहुत डर जाते हैं क्यूंकि अज़्काबान से कभी कोई भाग नहीं सकता था."

"क्यों नहीं भाग सकता था?", लड़के ने वाज़िब सवाल किया

"क्यूंकि उस प्रिज़न के गार्ड्स थे डिमेंटर्स। और वो कोई ऐसे-वैसे गार्ड्स नहीं थे। वो ऐसे घोस्ट जैसे होते थे और ब्लैक कलर के कपड़े पहन के उड़ते रहते थे", लड़की ने फिल्म में देखे हुए डिमेंटर्स का काफी सजीव चित्रण किया. ना चाहते हुए भी पूर्वी के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आ गई।

"और वो जहां होते थे वहां की सारी खुशियां और गुड थॉट्स खत्म हो जाते थे। केवल सॉरो, अनहैपीनेस और बैड थॉट्स ही रह जाते थे। और अगर वो किसी को पकड़ लें तो उसकी सोल खींच लेते थे!" कहते कहते लड़की का स्वर गंभीर हो गया था।

और उसके स्वर की गंभीरता ने पूर्वी को जैसे वापिस वास्तविकता के धरातल पर ला पटका। उसे लगा शायद उसके जीवन को इन दिनों डिमेंटर्स ने ही जकड़ रखा है क्यूंकि आजकल उसके पास सिर्फ सॉरो, अनहैपीनेस और बैड थॉट्स ही तो रह गए थे। 

वैसे देखा जाए तो पूर्वी के लिए सब सही चल रहा था। उसका प्लेसमेंट अच्छी कंपनी में हो चुका था और इंटर्नशिप बस खत्म होने वाली थी। घरवालों ने शादी के लिए बोलना शुरू नहीं किया था और वो अपने दोस्तों के साथ आने वाले समय को लेकर उत्साहित भी थी.  

लेकिन इन सबके बावजूद हर एक शाम पूर्वी के लिए एक सज़ा जैसी थी और पूरा दिन उस शाम का डर और इसकी वजह था अक्षत!

अक्षत उसका बॉयफ्रेंड था। शुरुआत फर्स्ट ईयर में दोस्ती से हुई और धीरे धीरे प्यार में बदल गई। तीन साल सब वैसा ही रहा जैसा अमूमन कॉलेज का हर प्यार होता है। लेक्चर में साथ बैठना, कैंटीन में साथ खाना, शाम को साथ घूमना, साथ पढ़ना और कभी कभी सारी ज़िन्दगी साथ रहने के सपने देखना और कुछ नाज़ुक लम्हों में उन सपनों को एक दूसरे के साथ बाँटना! 

लेकिन फिर वो चाहे मैसाचुसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी हो या मेरठ इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी, हर कॉलेज का अंतिम वर्ष होता है प्लेसमेंट इयर जो एक ऐसा विलेन बन के आता है जिसका काम ही है कॉलेज के हर प्रेमी युगल की "साथ जीने मरने" की कसमों की परीक्षा लेना और जो इसकी परीक्षा में पास हो जाते हैं वो कई बार अपनी इन कसमों को पूरा भी कर लेते हैं. 

पूर्वी और अक्षत इस परीक्षा में फ़ेल हो गए या यूं कहें कि अक्षत परीक्षा के बीच से ही उठ गया.

हुआ ये कि पूर्वी के लिए चीज़ें थोड़ी बेहतर हो रही थीं. इंटर्नशिप अच्छी जगह मिली और प्लेसमेंट भी कॉलेज आयी दूसरी या तीसरी कंपनी में ही हो गया. अक्षत को पहले तो इंटर्नशिप के लिए बड़े पापड़ बेलने पड़े और जब मिली भी तो बस नाम की. प्लेसमेंट की हालत और भी बुरी हुई और कभी स्क्रीनिंग, कभी ग्रुप डिस्कशन और कभी इंटरव्यू, किसी न किसी मोड़ पर उसकी क़िस्मत साथ छोड़ देती थी. जैसे जैसे समय बीत रहा था कंपनियों के आने की रफ़्तार कम हो रही थी और नौकरी मिलने की उम्मीदें भी. 

अब तक सब कुछ साथ साथ करने वाले पूर्वी और अक्षत के लिए ये एक बिलकुल नया अनुभव था. पूर्वी अभी भी उसकी हर संभव मदद कर रही थी लेकिन जो हाथ अब तक साथी थे उनका रिश्ता अब दाता और याचक का हो चुका था या फिर अक्षत को ऐसा ही लगता था. जो नोट्स वो बाकी दोस्तों से बेझिझक मांग लेता था, वही पूर्वी से लेने में उसे शर्म आने लगी थी. पूर्वी की हर सहायता उसको अपने ऊपर एहसान जैसी लगने लगी थी. पूर्वी जब भी उससे इंटरव्यू या पढ़ाई के बारे में कोई सवाल करती थी तो उसे ऐसा लगता था जैसे वो उसकी विफलताओं की याद दिला रही है. 

पूर्वी इन सब बातों से अनजान नहीं थी और वो कोशिश भी करती थी कि अक्षत अभी भी उसके साथ पहले जैसे ही व्यवहार करे पर उसकी हर कोशिश निराशा और पुरुषवादी अहम् के उस दोहरे आवरण को भेद नहीं पाती थी जिससे अक्षत ने खुद को पूरी तरह से ढक लिया था.

और वो आवरण दिन पर दिन और मोटा होता जाता था और पूर्वी और अक्षत के बीच की दूरी बढ़ती ही जाती थी. वो अब भी मिलते थे लेकिन अब पूर्वी की इंटर्नशिप के कारण समय कम मिलता था. पूर्वी अपने ऑफिस की बातें बताना चाहती थी लेकिन उसकी बातें सुनकर अक्षत की हीन भावना और भी बलवती होती थी और वो मज़ाक के बहाने पूर्वी पर कटाक्ष करता था. पूर्वी तड़प कर रह जाती थी पर अक्षत को और बुरा न लगे इसलिए कोई जवाब नहीं देती थी. अक्षत के पास बताने के लिए कुछ नया तो होता नहीं था इसलिए वो अधिकतर चुप ही रहता था और धीरे धीरे पूर्वी भी चुप ही रहने लगी थी। 

पहले पूरा दिन साथ रहने के बाद भी समय कम लगता था, अब उस एक घंटे के लिए जैसे घड़ी के कांटे आगे नहीं खिसकते थे. पहले जब वो साथ होते थे तब बातें कम पड़ जाती थीं, अब सिर्फ चुप्पी के लिए जगह बची थी. 

कभी कभी अक्षत को अपने इस बर्ताव पर दुःख भी होता था और वो पूर्वी से प्यार के दो बोल बोल भी लेता था, पर आग पर पानी के छींटे आग को बस पल भर के लिए कम करते हैं बुझाते नहीं और जब वो आग वापिस भड़कती है तो और भी रुद्र होती है. ऐसे ही कभी कभी पूर्वी का दिल दुखा कर अक्षत को एक अजीब सा सुकून मिल जाता था और वो पता नहीं पूर्वी को किस गलती की सज़ा देकर खुश होता था.

पूर्वी ने अपने आप को इस सबसे बचाने के लिए काम में झोंक दिया था और इसी वजह से अपने ऑफिस में वो सबकी चहेती बन गयी थी लेकिन शाम को ऑफिस से निकलने के बाद और सुबह ऑफिस पहुँचने से पहले तक उसके दिमाग पर एक बोझ जैसा बना रहता था और लाख कोशिशों के बाद भी वो उस बोझ तले दबती जा रही थी. उसे पता था कि इस बोझ को उतार फेंकने का विकल्प भी है उसके पास पर उस रास्ते पर चलने का साहस वो जुटा नहीं पा रही थी. 

मेट्रो अचानक एक झटके से रुकी और पूर्वी अपने ख्यालों से बाहर आ गयी. स्टेशन तो नहीं था कोई, शायद किसी और वजह से इमरजेंसी ब्रेक लगाया होगा ड्राइवर ने. 

".. प्रोफेसर ल्यूपिन ने हैरी को ट्रेनिंग देनी शुरु की डिमेंटर्स से फाइट करने के लिए. उसके लिए हैरी को अपने माइंड में कोई हैप्पी मेमोरी सोच के कुछ बोलना होता था ज़ोर से. जितनी हैप्पी और स्ट्रांग मेमोरी होती थी उतना स्ट्रांग उसका वो स्पेल। पहले तो हैरी से नहीं हो पा रहा था लेकिन फिर उसने बहुत प्रैक्टिस की.  "

हाँ, उसे भी अब इन डिमेंटर्स से लड़ना पड़ेगा जिन्होंने उसकी सारी खुशियों को ख़त्म कर दिया है और जो अब धीरे धीरे उसकी आत्मा को उससे अलग कर रहे हैं. कब तक वो उन साथ बिताये खुशनुमा पलों को, उसकी आज की खुशियों के मुकाबले ज़्यादा महत्त्व देती  रहेगी। कब तक वो इस उम्मीद में जियेगी कि एक दिन सब ठीक हो जाएगा और उसकी ज़िन्दगी 'हैप्पी एवर आफ़्टर' की पटरी पर चल पड़ेगी और अगर अभी सब ठीक हो भी जाता है तो आगे कभी ऐसा कुछ नहीं होगा इसका क्या भरोसा है!

पूर्वी अपने मन में ये सब पहले भी कई बार सोच चुकी थी लेकिन आज से पहले इस अनदेखे शत्रु का न कोई नाम था न कोई चेहरा, लेकिन आज 'डिमेंटर्स' की इस संज्ञा ने उसको एक उद्देश्य दे दिया था, अपने लिए लड़ने का. उसने सोच लिया था कि अक्षत के साथ बिताया पुराना समय बहुत अच्छा था और अगर उस समय को आगे भी याद रखना है तो अब उसे यादों के बक्से में बंद कर के सहेज के रख देना पड़ेगा.

उसका स्टेशन आ रहा था, वो उठ खड़ी हुई.

"वो डिमेंटर्स को भगाने वाला स्पेल क्या था", लड़के ने अपनी बहन से सवाल किया।

"उम्म कुछ तो था एसेक्टो.. याद नहीं आ रहा", लड़की ने दिमाग पे ज़ोर डाला लेकिन ठीक ठीक याद नहीं कर सकी.

स्टेशन आ गया था. पूर्वी बाहर निकलने को थी. उसने बच्चों की तरफ देखा और अपनी सारी हैप्पी मेमोरीज को याद करते हुए पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा "एक्सपेक्टो पेट्रोनम" 


रविवार, 28 अगस्त 2022

संतोष

"अरे आप लोग ये भरत मिलाप अब ख़त्म करिये नहीं तो फ्लाइट छूट जानी है!"

यतिन की आवाज़ में थोड़ी झुंझलाहट स्पष्ट थी. कैब ड्राइवर प्रतीक्षा कर रहा था और अब तक दो बार फोन कर चुका था. वैसे भी शाम का समय था और ट्रैफिक बढ़ ही रहा था. एयरपोर्ट पर हबड़ा-धबड़ी उसको बिलकुल पसंद नहीं थी इसलिए उसे थोड़ा जल्दी निकल कर चेक इन और सुरक्षा जांच वगैरह समय से खत्म करने की आदत थी.

दामाद जी की आवाज़ की तल्ख़ी ने "भरत मिलाप" पर ब्रेक लगा दिए. आँखों में आंसू भरे सास जी ने अपनी ६ महीने की नातिन को आखिरी बार गले से लगाया और बेटी को थमा दिया। ससुर जी और यतिन २ सूटकेस और १ बैग (जिसमें सिर्फ़ बच्ची के कपड़े, डायपर और बोतल आदि थे) लाद कर चले. सारा सामान कैब में रखा गया और अश्रुपूरित अलविदा के साथ गाड़ी एयरपोर्ट की तरफ़ रवाना हो गयी. 

और इस प्रकार यतिन बाबू, अपना ५ महीने का ब्रह्मचर्य जीवन समाप्त कर वापिस गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने चले. 

बेटी के जन्म के एक महीने बाद ही यतिन ने अपनी पत्नी चित्रा को उसके मायके पहुंचा दिया था. बीच में एक बार आ कर बिटिया को देख भी गया था. अब चित्रा की मैटरनिटी लीव समाप्त होने को थी और हालांकि वो कोशिश कर रही थी कि छुट्टी कुछ दिन और बढ़ जाए, उसने वापिस बैंगलोर अपने घर आने का मन बना लिया था. 

गोद में छोटा बच्चा होने का फ़ायदा और कहीं हो न हो, एयरपोर्ट पर तो शर्तिया होता है. यतिन और चित्रा को भी हुआ और चेक इन और सुरक्षा जांच समय से पहले निपटा लिए गए और अब विमान में बोर्डिंग के लिए पौन घंटे से ज़्यादा का समय बाकी था। बोर्डिंग गेट के पास पहुँच कर चित्रा बेटी और बैग को ले के एक सीट पर बैठ गयी. वैसे तो घर से चाय वगैरह पी के ही चले थे पर फिर भी यतिन के पूछने पर उसे कॉफ़ी लाने के लिए बोल ही दिया। 

यतिन कॉफ़ी लेने गया तो काउंटर पर ज़्यादा भीड़ नहीं थी. सिर्फ़ एक लड़की थी. 

और उस एक पल में यतिन को लगा कि उस पूरे एयरपोर्ट पर बस वही एक थी. लाल रंग का कुरता और जींस, लम्बे बाल जिनको तरतीब से खुला छोड़ दिया गया था और चेहरा ऐसा कि यतिन समझ नहीं पा रहा था कि देखता रहे या एक बार देख के आँखों में बसा ले!

यतिन वैसे तो चित्रा से काफ़ी प्यार करता था और ऐसा कोई दिलफेंक आशिक़ भी नहीं था कि हर आती जाती लड़की को घूरने लगे पर जैसा कि बिनाका गीत माला से ले कर रेडियो मिर्ची टॉप २० तक हर रोमैंटिक फ़िल्मी गीत ने हमें सिखाया है कि दिल पर किसका ज़ोर चलता है. यतिन का दिल भी कोई अपवाद नहीं था. 

उसने अपने दिमाग़ को समझा लिया कि उस लड़की को देख कर वो कोई ग़लत काम नहीं कर रहा. बस देख ही तो रहा है. मन में कोई गलत भावना तो है नहीं। किसी की सुंदरता की मन ही मन प्रशंसा करना कोई गलत बात तो है नहीं ख़ासकर अगर किसी को कोई समस्या न हो. और एक बार ये ट्रम्प कार्ड फेंकने के बाद दिमाग के पास कोई और पत्ता नहीं बचा. 

चित्रा को कॉफ़ी दे कर वो फिर से टहलने के बहाने उस लड़की को कनखियों से देखता रहा. कल्पना के घोड़े अब बेलगाम दौड़ रहे थे. कैसा होता अगर वो लड़की भी उसकी फ्लाइट में होती और उन दोनों की सीट्स भी साथ में। उसे वो सारी फिल्में याद आने लगीं जब हीरो हीरोइन ट्रेन या फ्लाइट में साथ बैठें होते हैं और बातों ही बातों में बात कहीं से कहीं पहुँच जाती है. 

एक पल के लिए वो भूल गया कि आज उसके साथ चित्रा और उसकी छोटी बच्ची भी हैं. 

बोर्डिंग की घोषणा हो गयी और गेट के सामने लाइन बनने लगी. यतिन भी चित्रा और बेटी के साथ लाइन में लग गया. थोड़ी देर पहले के ख़्वाब, आखिर ख़्वाब ही थे और अपनी अंतिम गति को प्राप्त हो चुके थे. 

प्लेन में जब वो अपनी निर्धारित सीट पर पहुंचा तो उसे झटका लगा. उस लड़की की सीट वास्तव में उसके साथ वाली ही थी! उसने एक बार फिर से बोर्डिंग पास में सीट नंबर देखा कि कहीं ग़लती तो नहीं हो गयी. कोई ग़लती नहीं थी. यतिन और चित्रा की विंडो और मिडिल सीट्स थीं, लड़की की आइल सीट. यतिन विंडो सीट पर बैठा। कुछ सपने, वास्तविकता में दुःस्वप्न हो सकते हैं इसलिए उनको आँखों में बंद कर के रखना ही बेहतर होता है.

प्लेन उड़ने के थोड़ी देर बाद ही बच्ची बेचैन होने लगी. चित्रा उसको चुप कराने के लिए दूध पिलाने लगी लेकिन बच्ची पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा. चित्रा उसको बाथरूम ले कर गयी और डायपर बदल कर लाई. लड़की ने उसके आते और जाते समय अपनी सीट से हट कर उसे रास्ता दिया। 

यतिन को शर्म सी आयी कि उन लोगों की वजह से उस लड़की को परेशानी हो रही है पर लड़की को ना तो यतिन की शर्म की कोई खबर थी और ना तो उस परेशानी की जो यतिन को परेशान कर रही थी, और अगर वो परेशान हो भी रही थी तो उसने ऐसा कोई भाव चेहरे पर आने नहीं दिया।

बच्ची का पेट शायद खराब था और चित्रा को उसे बाथरूम ले कर बार बार जाना पड़ रहा था. 

यतिन से रहा नहीं गया, उसने लड़की को सॉरी बोला और उससे पूछा कि क्या वो विंडो सीट ले सकती है? लड़की ने मुस्कुरा कर उसका यह आग्रह स्वीकार कर लिया। 

बाकी की यात्रा ईश्वर और बच्ची की कृपा से थोड़े सुकून से कटी. उतरते वक़्त यतिन और लड़की के बीच फिर एक बार "सॉरी" और "इट'स ओके" का आदान प्रदान हुआ. इसके बाद तो उतरने की आपाधापी में उसे लड़की का ध्यान ही नहीं रहा. 

वापसी की कैब में वो मन ही मन अपनी इस छोटी सी कहानी की नायिका के बारे में सोचने लगा लेकिन अब उसके मन में संतोष था कि उतनी ही सही, "उससे" बात तो हो गयी. 

शनिवार, 17 जुलाई 2021

रिकॉर्ड

आखिरकार वो दिन आ ही गया था जब मनोज खुद से, बिना किसी की मदद के साइकिल चला सकता था. 

पहले हफ्ते भर तो पापा पीछे से साइकिल का कैरियर पकड़ते थे जब वो पैडल मारना सीख रहा था। शुरुआत में साइकिल बुरी तरह डगमगाती थी पर धीरे धीरे मनोज के हाथ, साइकिल के हैंडल, उसके पहिये सब में एक सामंजस्य बन गया था और साइकिल कमोबेश सीधी रेखा में चलने लगी थी. 

दूसरा हफ्ता आते आते पापा ने कैरियर पकड़ना छोड़ दिया था पर मनोज के मन का डर पूरी तरह से निकलने में थोड़ा समय लगा था। दूर ही सही, कोई या कुछ भी उसके सामने आ जाता था तो साइकिल लड़खड़ा जाती थी और वो तुरंत उतर जाता था. 

अब इस डर का इलाज तो डर से लड़कर ही किया जा सकता था तो हुआ यूं कि अब जब सुबह पापा टहलने निकलते तो मनोज भी उनके साथ ही मोहल्ले की खाली सड़क, जो सुबह और भी ज़्यादा खाली होती थी, पर साइकिल लेकर निकल पड़ता। इस सड़क को मनोज ने अपने दोस्तों के साथ बहुत बार अपने पैरों से नापा था तो सड़क अनजान तो नहीं थी, बस इतना अंतर था कि देखने का नज़रिया ज़रा बदल गया था.    

सुबह सड़क पर कोई गाड़ियां नहीं होती थीं, बस इक्का दुक्का लोग मॉर्निंग वॉक करते दिख जाते थे. अब मनोज हैंडल ज़रा सा घुमा के साइकिल को थोड़ा सा मोड़ना, घंटी बजा कर रास्ता बनाना, रफ़्तार कम-ज़्यादा करना आदि भी सीखने लगा. पहले तो पापा के बोलने पर और फिर खुद से ही.  जैसे जैसे दिन चढ़ता, सड़क पर चहल-पहल बढ़ती और बाप बेटा घर वापिस आ जाते। 

कुछ दिन तक यह क्रम चला और जैसा कि होता है मनोज और साइकिल के बीच अब वो रिश्ता हो गया था जिसे फिल्मों के शायर "दो-जिस्म-एक-जान" से परिभाषित करते हैं. 

और आखिरकार वो दिन आ ही गया था जब मनोज खुद से, बिना किसी की मदद के साइकिल चला सकता था. 

उसने हमेशा सुना, पढ़ा था कि कोई भी बिना गिरे साइकिल चलाना नहीं सीखता और इस लिए ये उसके लिए ख़ास तौर से गर्व की बात थी कि वो एक बार भी नहीं गिरा। अब वो अपने उन दोस्तों, जिन्हें अभी तक साइकिल चलाना नहीं आता था, को बिना मांगे फ़्री साइकिल कोचिंग भी देने लगा. पापा की सिखाई बातों के साथ साथ ग्रेविटी और मोमेंटम के एक आध फंडे भी जोड़ कर सिखाने से दोस्तों पर एक अलग ही प्रभाव पड़ता था, या कम से कम उसको तो ऐसा ही लगता था!

वैसे उसकी ख़ुद की साइकिल छोटी ही थी. उसने बहुत ज़िद की थी नयी साइकिल के लिए लेकिन हमेशा की तरह मम्मी, जो वैसे तो घर की प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और विदेश मंत्री होती थीं, ने वित्त मंत्रालय सँभालते हुए जनता को आश्वासन दिया था कि अभी सीखने के लिए सेकंड हैंड साइकिल ले ली जाए, बाद में नयी बड़ी साइकिल अवश्य दिलाई जाएगी।

और उसी संडे, सेकंड हैंड साइकिल पापा के दोस्त के घर से ले ली गयी. 

आज भी संडे था. साइकिल आये दो महीने हो चुके थे और बक़ौल मनोज अब वो साइकिल चलाने में 'प्रो' लेवल पर था. घर से बाहर अब पैरों का इस्तेमाल सिर्फ साइकिल चलाने में ही होता था. दूकान से कुछ लाना हो या किसी के घर जाना हो, पैदल चलना अब मनोज बाबू की शान के ख़िलाफ़ था। 

पापा और मनोज सुबह टहलने निकले. ज़ाहिरा तौर पर पापा पैदल और मनोज साइकिल पर. लेकिन आज मोहल्ले की सड़क पर नहीं, उससे भी आगे. इंजीनियरिंग कॉलेज के पास वाले मैदान की तरफ़. मनोज पापा से कुछ दूर तक आगे निकल जाता और फिर वापिस आता और यूं ही आगे पीछे करते करते वो इंजीनियरिंग कॉलेज के पास पहुँच गया. पापा थोड़ा पीछे थे। 

उसको एक हमउम्र लड़का पैदल जाता दिखा। न जाने क्यों मनोज के मन में इस लड़के से प्रतिस्पर्धा का भाव आ गया. लड़का पैदल था, वो साइकिल पर लेकिन फिर भी उसे लगा कि वो इस लड़के को 'हरा' कर मैदान तक पहले पहुंचेगा और उसे 'दिखा देगा'. क्या दिखाना था, ये शायद उसे खुद भी नहीं पता था! 

साइकिल की रफ़्तार तेज़ हो गयी, लड़के से आगे निकला तो घंटी बजा कर उसका ध्यान भी आकर्षित किया गया. मन में गर्व और विजय की अनुभूति से सीना फूल उठा. 

आगे रास्ता कच्चा था और थोड़ा ऊबड़ खाबड़ भी. मनोज के मन में एडवेंचर की भावना आ गयी और वो सीट से उठ कर पैडल मारने लगा. लेकिन ये रास्ता मोहल्ले की सड़क जैसा पहचाना हुआ नहीं था, आगे का टायर एक छोटे से गड्ढे में गया और इसके पहले मनोज कुछ कर पाता, वो साइकिल समेत ज़मीन पर था. 

बाएं हाथ की कोहनी में भयानक दर्द हो रहा था, कपड़े धूल धूसरित हो चुके थे, चप्पल पैर से निकल चुकी थी. बहुत कोशिश के बाद भी उससे उठा नहीं जा रहा था. दर्द के मारे आंखें आंसुओं से भर चुकी थीं. पापा कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे, साइकिल ज़्यादा तेज़ चलाने के कारण वो उनसे बहुत आगे निकल चुका था. उनके इंतज़ार का एक एक क्षण एक एक युग के बराबर लग रहा था.

तभी वो लड़का जिसको 'हरा' कर मनोज यहां तक पहुंचा था, आता दिखा। मनोज को लगा कि धरती फट जाए और वो उसमें समा जाए. 'दुश्मन' से मदद लेना हमारे बहादुर को बिलकुल मंज़ूर न था लेकिन उसके दुश्मन को तो इस दुश्मनी का आभास भी नहीं था तो जब उसने देखा कि एक लड़का गिरा पड़ा है तो वो दौड़ कर आया और उसे उठाया। मनोज को लग रहा था कि वो शर्म से गड़ा जा रहा है. पिछले पांच मिनट उसकी आँखों के आगे फ़िल्म की तरह निकल गए. शर्म अब भी थी, शायद पहले से और भी बहुत ज़्यादा, पर अब अपनी बेवकूफी पर. क्यों उसके मन में ये रेस लगाने का आईडिया आया?

तब तक पापा को भी अपना गिरा हुआ बेटा दिख गया था और उन्होंने दौड़ कर आ के मनोज के कपड़े झाड़ पोंछ कर साफ़ किये। लड़के ने साइकिल उठा कर स्टैंड लगा कर खड़ी कर दी थी और जा चुका था. 

वापसी में मनोज ने बाएं हाथ को दाहिने से पकड़ा हुआ था, साइकिल पापा ले कर चल रहे थे.  चोट और शर्म के मिले जुले आंसू गालों तक पहुँच चुके थे. 

लेकिन बाकी सब दुखों के अलावा उसके मन में एक दुःख ये भी था कि उसका साइकिल से ना गिरने का रिकॉर्ड अब टूट चुका था!

गुरुवार, 28 मई 2020

हम भूल जाएंगे

हम भूल जाएंगे 

रेलवे स्टेशन पर मरी हुई माँ 
को जगाता बच्चा,
सूटकेस पे सोते हुए 
खींचा जाता बच्चा,
ट्रेन में भूख प्यास और गर्मी 
से रो रो कर मर जाता बच्चा।
पर कल जब हमारे बच्चे 
स्कूल जाएंगे,
हम इन सबको भूल जाएंगे!


सैकड़ों मील पैदल 
चलते मज़दूर,
ट्रकों में बोरियों 
जैसे भरते मज़दूर,
ट्रेन के नीचे कट 
के मरते मज़दूर।
यकीन मानिये कल भी ये गलियों 
की धूल खाएंगे,
पर तब तक 
हम इन सबको भूल जाएंगे!


ठेकेदार से मज़दूरी के 
लिए गिड़गिड़ाती औरतें, 
छोटे बच्चे को गोद में 
ले के घर जाती औरतें,
सड़क पे प्रसव में ही 
मर जाती औरतें।
कल जब हम धूमधाम से 
महिला दिवस मनाएंगे,
कसम से कहता हूँ,
हम इन सबको भूल जाएंगे!
 
टीवी के आगे बैठ कर सरकार के 
महिमा गान सुनते हम,
कभी चीन, कभी पाकिस्तान 
कभी हिन्दू-मुसलमान सुनते हम, 
20 लाख करोड़ में 
अपना-अपना हिस्सा गिनते हम।
कौन सुनेगा अगर कभी 
अपने भी दिन ऐसे आएंगे,
पर पक्का है ऐसे ख़्याल भी
हमें नहीं जगाएंगे।
चार दिन में देख लेना ,
हम सब भूल जाएंगे। 
 
फिर एक बार,
हम सब कुछ भूल जाएंगे 
 

शनिवार, 18 अप्रैल 2020

मेरी मूवी लिस्ट: ग़ैर-हिंदी भाषाओं की ५ लव स्टोरीज़

सिनेमा। हर उस आत्मपरक यानि सब्जेक्टिव विधा की तरह है जिसमें दो लोग भी अगर किसी एक चीज़ पर सहमत हो जाएं तो बड़ी बात! तो दी लल्लनटॉप की लिस्ट में दो फ़िल्मों के नाम देख कर जब हमने आपत्ति ज़ाहिर की तो लल्लनटॉप के भाई साहब ने कहा कि जी डेमोक्रेसी है, ये उनकी लिस्ट है, आप अपनी बना लो!

तो जी इस प्रवचन का लब्बोलुआब ये, कि हाज़िर हैं मेरी पसंदीदा ग़ैर-हिंदी भाषाओं की पिछले 5 सालों में रिलीज़ हुई 5 प्रेम कहानियाँ:

1. कुम्बलांगी नाइट्स (मलयालम, 2019)

कहानी घूमती है चार भाइयों, साजी, बॉनी, बॉबी और फ्रैंकी, के इर्द गिर्द. फ्रैंकी सबसे छोटा है और फुटबॉल खेलता है. भाइयों की आपस में बिलकुल नहीं बनती है. घर में माँ-बाप हैं नहीं और उनकी आर्थिक हालत भी ज़्यादा अच्छी नहीं है. बॉबी को प्यार हो जाता है बेबी से जो अपनी माँ के साथ अपनी दीदी और जीजा के साथ उनके घर में रहती है और टूर गाइड का काम करती है. बेबी से शादी करने के लिए बॉबी भी आवारागर्दी छोड़ कर नौकरी करना शुरू कर देता है और साजी उनके रिश्ते की बात करने बेबी के जीजा के पास भी जाता है, पर फिर कुछ ऐसा होता है कि सारे भाई अपने गिले-शिक़वे भुला कर एक साथ आ जाते हैं!

डायरेक्टर: मधु सी नारायणन. बतौर निर्देशक पहली फ़िल्म. इसके पहले सिर्फ एक फिल्म में असिस्टेंट रहे थे. मलयालम फिल्मों के सुपरस्टार और इस फिल्म में विलेन के किरदार में काम कर रहे फ़हाद फ़ासिल इस फिल्म के सह-निर्माता भी हैं.

कहाँ देखें: अमेज़न प्राइम वीडियो




2. ओ कादल कनमनी (तमिल, 2015)

आदित्य एक वीडियो गेम डेवलपर है और अमेरिका जाने के ख्वाब रखता है. उसको मिलती है तारा जो एक वास्तु-कला (आर्किटेक्चर) की छात्रा है और पेरिस में पढ़ना चाहती है. दोनों को प्यार हो जाता है, पर शादी वगैरह में दोनों को कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं है तो जब तक उनके सपने उन्हें अलग अलग राहों पर ना ले जाएं तब तक वो साथ रहेंगे और उसके बाद ओके टाटा बाय बाय. इसी विचारधारा के साथ वो लिव इन में रहने लगते हैं. पर उनके बूढ़े मकान मालिक दम्पति के बीच का प्यार देख कर उनका मन बदल जाता है.

डायरेक्टर: मणिरत्नम. 2000 में आयी 'अलाइ पायुथे' के बाद उनकी पहली शुद्ध देसी रोमांटिक फ़िल्म! 2 साल बाद आयी 'ओके जानू' देख कर ऐसा लगेगा जैसे किसी बेस्ट-सेलर किताब की चौराहे पर मिलने वाली फोटोकॉपी.

कहाँ देखें: हॉटस्टार. वीआईपी या प्रीमियम सब्सक्रिप्शन की आवश्यकता नहीं.



3. 96 (तमिल, 2018)

दसवीं कक्षा में एक दूसरे को दिल दे चुके राम और जानकी (जानू) 22 साल बाद स्कूल के रीयूनियन में मिलते हैं और वो भी सिर्फ एक रात के लिए. 22 साल पुराने  पहले प्यार की यादों के साथ ही निकल कर आती हैं बहुत सारी बातें. इससे ज़्यादा इस फिल्म की कहानी के बारे में बता पाना, बिना स्पॉइलर दिए, संभव नहीं!

डायरेक्टर: सी प्रेम कुमार. बतौर निर्देशक इनकी भी पहली फ़िल्म. इसके पहले छायाकार (सिनेमेटोग्राफर) थे. फ़िल्म की नायिका का नाम प्रख्यात गायिका जानकी देवी के नाम पर रखा गया है और वो जानकी अम्मा के गीत ही गाती भी है.

कहाँ देखें: सन नेक्स्ट, जिओ सिनेमा. यूट्यूब पर किराये पर या खरीद कर देख सकते हैं




4. केयर ऑफ़ कांचरापलेम (तेलुगु, 2018)

चार प्रेम कहानियाँ, जीवन के अलग अलग पड़ावों पर. पांचवीं में पढ़ने वाले सुंदरम को प्यार होता है अपनी क्लास की सुनीता से, 23 साल के जोसेफ़ को भार्गवी से, 31 वर्षीय गड्डम को सलीमा से और 49 साल के ऑफिस अटेंडेंट राजू को अपनी 42 वर्षीय अधिकारी राधा मैडम से. राजू इस उम्र में भी अविवाहित है और गाँव के लोगों के ताने और उपहास झेलने का आदी भी. वहीं राधा मैडम विधवा हैं और उनकी एक 20 साल की बेटी भी है. हर प्रेम कहानी में एक न एक खलनायक है. कहीं धर्म, कहीं आयु और कहीं समाज. लेकिन अंत में सारी कहानियाँ आ कर मिलती हैं एक बिंदु पर!

डायरेक्टर: वेंकटेश माहा. बतौर निर्देशक ही नहीं बतौर लेखक भी इनकी पहली फ़िल्म. इसके पहले फ़िल्म जगत से कोई नाता नहीं! विशाखापट्नम के पास कांचरापलेम कस्बे में ही शूटिंग हुई और सभी (जी हाँ, सभी) कलाकार इसी जगह के निवासी हैं और किसी को भी पहले अभिनय का कोई तजुर्बा नहीं था. फ़िल्म को 'प्रेजेंट' किया था अपने भल्लालदेवा यानि राना दग्गुबाती ने.

कहाँ देखें: नेटफ़्लिक्स 




5. फ़िदा (तेलुगु, 2017)

अमेरिका के एनआरआई राजू और उसका भाई वरुण भारत आते हैं राजू की शादी के लिए रेणुका को देखने. रेणुका की तेज़ तर्रार बहन और अपने पिता की बहुत दुलारी बेटी है भानुमती। एक तरफ राजू और रेणुका की शादी की रस्में आगे बढ़ती हैं तो दूसरी तरफ वरुण और भानुमती की दोस्ती, जो धीरे धीरे प्यार में बदलने लगती है. पर भानु अपने पिता को छोड़ कर अमेरिका नहीं जाना चाहती और जब उसे पता चलता है कि वरुण भारत नहीं आना चाहता तो प्यार में दरार आ जाती है. अब ये दरार कैसे भरती है, वरुण और भानु अपने बीच के फासलों को कैसे ख़त्म करते हैं, यही इस फ़िल्म की कहानी है.

डायरेक्टर: शेखर कम्मुला. तेलुगु सिनेमा का बहुत बड़ा नाम. ये फिल्म मलयालम और तमिल में ('भानुमती') भी डब हुई थी.

कहाँ देखें: अमेज़न प्राइम वीडियो, हॉटस्टार, व्यू सेलेक्ट


 एक आखिरी बात. इन सभी फिल्मों का संगीत बेहद शानदार है. भाषा नहीं भी समझते हों तो भी सुनिए क्यूंकि संगीत की कोई भाषा तो होती नहीं ना!

सोमवार, 16 दिसंबर 2019

ये कहाँ आ गए हम

(रितुपर्णा चटर्जी के ट्वीट्स का हिंदी अनुवाद: https://twitter.com/MasalaBai/status/1206386825838772226)

ये दिन अचानक नहीं आया, धीरे धीरे नींव रखी गयी है. उनको ये पता है कि जनता की नैतिकता बहुत लचीली है और इसीलिये हर दिन थोड़ा थोड़ा करके, जनता को आज़माया गया कि वो बिना टूटे कितना बर्दाश्त कर सकती है. उन्होंने छात्रों की छवि देश के दुश्मनों जैसी बना दी और आपने तालियां बजायीं।

जब पहली बार उन्होंने टीवी चैनलों को अपना मुखपत्र और ऐंकर्स को अपनी कठपुतली बनाया तब आपने मीम्स बनाये. जब उन्होंने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को रात के अँधेरे में घर से गैर कानूनी तरीके से उठा कर जेल में ठूंस दिया और उनके गुर्गों ने उन्हें आतंकवादी करार दे दिया तब आपने उनका यकीन कर लिया.

जब पहली बार उन्होंने हमसे हमारा पैसा छीन लिया तब हमने अखबार के पन्ने इस कदम को 'मास्टरस्ट्रोक' साबित करने में रंग दिए और सबको बड़े गर्व से बताया कि हम तो 'कैश' का इस्तेमाल करते ही नहीं क्यूंकि हम कोई छोटे व्यापारी या दुकानदार नहीं थे जिसके लिए ये जीने मरने की बात थी!

जब पहली बार उन्होंने सिनेमा घरों में घुस कर अपनी 'आहत भावनाओं' का हवाला दे कर तोड़ फोड़ की, आपने उन्हें अदालत में चुनौती नहीं दी। जब पहली बार उन्होंने किसी को राष्ट्र गान के लिए खड़े नहीं होने पर मारा तब आपको लगा ऐसे 'देशद्रोहियों' के साथ यही सलूक होना चाहिए.

पानी नाक तक आ गया था जब पहली बार उन्होंने आतंकवाद की एक अभियुक्त को चुनाव में खड़ा कर दिया मगर तब आपने पूछा कि 'सबूत कहाँ है?'. और जब पहली बार उन्होंने किसी को सरेआम पीट पीट कर मार डाला तब आप को 'दुःख तो बहुत हुआ' लेकिन गऊ माता के नाम पर आपने ये सब स्वीकार कर लिया!

जब पहली बार उन्होंने इंटरनेट बंद किया, सेना को सड़कों पर ले आए, एक आदमी को जीप पर बाँध कर घुमाया तब तक आपको भीड़तंत्र की आदत पड़ चुकी थी और आपको इन सब बातों से कोई फर्क नहीं पड़ा. आपके मन में यही आया कि 'जो लोग देश से प्यार नहीं कर सकते उनके साथ यही होना चाहिए'

जब पहली बार उन्होंने आपका बायोमीट्रिक डाटा लेना और सारे सवालों को दरकिनार करना शुरू किया तब तक आप उनके आज्ञाकारी मातहत बन चुके थे. 'फेसबुक को डाटा दे सकते हैं तो देश को क्यों नहीं?' आपने ये नहीं सोचा कि देश और सरकार में फर्क होता है पर अब तक ये सोचने के लिए बहुत देर हो चुकी थी!

जब सत्ताधारी पार्टी के लोगों पर हत्या और बलात्कार के आरोप लगे, आपको कोई फर्क नहीं पड़ा। पड़ता भी क्यों, पीड़ित आपके परिवार का कोई सदस्य थोड़े ही था.

जब पहली बार उन्होंने स्कूल की किताबों में बदलाव किये, हज़ारों करोड़ों की मूर्तियां बनायी, शहरों के नाम बदले आपके कान पर जूँ तक नहीं रेंगी। आपने तो 'विकास' के लिए वोट दिया था ना, ये सब तो चलता है.

एक बात समझ लीजिये कि आपकी ये संवेदनहीनता बहुत ही चालाकी और सावधानी से तैयार की गयी है, और बाकी सब कुछ अपने आप हो रहा है!

सोमवार, 5 नवंबर 2018

पटाख़े चलाइये, हिन्दू धर्म बचाइये

दीवाली आने वाली है. इसके पहले कि कोई आपको बोले कि पटाख़े मत चलाओ मैंने सोचा आपको पहले ही सावधान कर दूँ कि ऐसे एंटी-नेशनल लोगों के बहकावे में मत आइयेगा। 

अभी आप पूछेंगे ये एंटी-नेशनल कैसे हो गये? तो जी मेरी मर्ज़ी।अभी एंटी-नेशनल बनने के लिए कोई डिग्री थोड़ी न चाहिये (वैसे अगर पीएचडी है और वो भी 'ऑर्टस' सब्जेक्ट्स में तो एक्स्ट्रा वेटेज मिलेगा और अगर आप जे.एन.यू. से हैं तो बस माथे पे लिखवाना बाकी है). 

मुद्दे पे वापिस आते हैं. तो जी दीवाली पे पटाख़े चलाना हमारी परंपरा है. अभी कोई वाल्मीकि या तुलसीदास बोलेगा कि दीपावली पर भगवान् राम के आने पर लोगों ने दिए जलाए तो इसका ये मतलब थोड़े ही है कि पटाख़े नहीं चलाये।ये कुम्हारों द्वारा फैलाया गया झूठ है. हम भी दिए मोमबत्ती जलाते हैं कि नहीं जलाते मित्रों। फुलझड़ी जलाने के लिए कोई तो आग का सोर्स चाहिए ना. अयोध्या वालों ने जो पटाख़े चलाये थे कि विभीषण ने मन ही मन सोचा था कि ठीक है अनंत काल तक मेरा नाम बदनाम हो गया पर इन लोगों के साथ दोस्ती हो गयी. अगर कहीं राम का दिमाग फिर जाता और यही पटाख़े वो लंका में चला देते तो लंका की लंका लग जाती!

और जो लोग कहते हैं कि पटाखों का आविष्कार चीन में हुआ ऐसे लोगों को तो बस पाकिस्तान भेज देना चाहिए। रामानन्द सागर की रामायण में वो लड़ाई वाले सीन याद हैं कि भूल गए? एक तरफ से लक्ष्मण तीर चलाते थे, दूसरी तरफ से मेघनाद। कैसी मनोहर आतिशबाज़ी निकलती थी दोनों से। वाह वाह. ये चीन वाले क्या खा के ऐसी आतिशबाज़ी का अविष्कार करेंगे!
और सारी दुनिया को पता है कि रामानन्द सागर की रामायण ही असली रामायण है तो अगर उसमें दिखाया था तो सच ही होगा ना। 

अब जो लोग बोलते हैं कि प्रदूषण होगा तो ऐसी कौन सी आफत आ रही है प्रदूषण से. आ भी रही है तो आने दो! कोई बोल रहा था कि डॉक्टर लोग बोले कि एक पटाख़े से ५० सिगरेट के बराबर धुंआ शरीर में जाता है तो भाई इससे अच्छी बात कुछ हो सकती है क्या? ५ पैकेट का खर्चा बचा कि नहीं। अब बस किसी तरह पीने का भी इंतज़ाम हो जाता तो दिवाली के दिन धरती पर ही स्वर्ग का आनंद आ जाता! और जो लोग कहते हैं कि पटाखों में होने वाले केमिकल्स से छोटे बच्चों पर बुरा असर पड़ता है तो जी बुरा असर तो टीवी का भी पड़ता है. उसको भी बैन कर दें क्या? और अगर थोड़ा ज़्यादा बुरा असर पड़ भी गया और थोड़े बच्चे और बूढ़े एक दो साल जल्दी मर भी गए तो देश की जनसँख्या के लिए अच्छा ही है ना. कभी तो देश के लिए भी सोचा करो. हमेशा अपनी ही चिंता लगी रहती है!

और व्हाट्सऐप पर बुआ जी ने बताया है कि दिवाली के पटाखों की गंध और धुएं से डेंगू और चिकनगुनिया के मच्छर मर जाते हैं. लो जी लाइफ़ में और क्या चाहिये! आगे से ये आल आऊट और मार्टीन फेंक कर सोने से पहले बस एक सौ वाली लड़ी जलाइए और चैन से सोइये. पैसे बचाने में पटाखों के योगदान पर रिसर्च होनी चाहिए।

तो बस सुप्रीम कोर्ट की ऐसी तैसी करिये, २४ घंटे पटाख़े चलाइये। हिन्दू धर्म वैसे भी खतरे में है, पटाख़े चला कर धर्म का नाम रोशन कीजिये।