शनिवार, 26 मई 2007

राजनीतिक गलती

जब लगभग सभी राजनीतिक दल और राजनीतिक विश्लेषक यही मानते हैं और बोलते नहीं थकते कि राष्ट्रपति भवन का रास्ता उत्तर प्रदेश की विधानसभा के गलियारे से हो कर जाता है तो कहने की ज़रूरत नहीं की विकास की दौड़ में लगातार पिछड़ते जा रहे इस राज्य की सियासी अहमियत में कोई कमी नहीं आयी है!

तो कोई अचरज नहीं की जब दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने कहा कि दिल्ली में बाहर से, खासकर यू.पी, बिहार से आने वालों की वजह से सुविधाओं पर काफी ज़्यादा ज़ोर पड़ता है, एक बड़ा हल्ला मचा। और इसके पहले की बीजेपी इसे मुद्दा बाना पाती और समाचार चैनल इस पर 'विशेष' या 'बड़ी खबर' दिखाते/सुनते, शीला जी ने माफ़ी माँग ली और कहा कि बाहर से आने वालों ने दिल्ली के विकास में बड़ा योगदान दिया है, 'खासकर यू.पी, बिहार से आने वालों ने'। यह मामला जल्दी ही निपट गया पर कुछ सवाल फिर से खडे कर गया।

कभी लखनऊ जाना होता है तो अपनी जेब का ख़्याल करके सीधे हैदराबाद से लखनऊ कि हवाई यात्रा के बदले दिल्ली जा कर लखनऊ मेल पकड़ना ज्यादा मुनासिब लगता है। नयी दिल्ली एअरपोर्ट से नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन के लिए मेट्रो से जाता हूँ। और यकीन मानिए एअरपोर्ट (भला हो जीएमआर का जिन्हों १ साल में इसकी काया ही पलट दी है) और फिर मेट्रो स्टेशन के बाद जब रेलवे स्टेशन पर पहुँचता हूँ तो होश फ़ना हो जाते हैं! बेहद भीड़! यात्रियों में अधिकतर यु.पी, बिहार से दिल्ली और आसपास के इलाक़ों में मजदूरी या छोटे मोटे काम करने वाले, रिक्शा, आटो चलाने वाले लोग जो 'गाँव' जा रहे होते हैं। (लगे हाथ यह भी बता दूं, कि दिल्ली/मुम्बई में अगर आप इन राज्यों से हैं तो एक सवाल के लिए तैयार रहे: तुम्हारा गाँव कहाँ है? भले ही आप लखनऊ, कानपूर, वाराणसी या इलाहाबाद जैसे शहरों से हो!) साथ में होगा छोटी से गृहस्थी का लगभग सारा सामान और पूरा परिवार।

सुधि पाठक, कृपया यह ना समझें कि मुझे इनमें से किसी से कोई शिक़ायत है। नहीं, क्योंकि, एक तरह से मैं भी उन जैसा ही हूँ.। पर अगर सवाल सुविधाओं पे ज़ोर का है तो इसमे कोई शक नहीं। तीज के मौक़े पे दिल्ली के स्टेशन जाना किसी युद्ध में जाने से कम नहीं लगता और रेल कि यात्रा करना तो जंग जीतने से कम नहीं होगा!

यह कोई पहली बार नहीं है कि मेरे प्रदेश के लोगों पर उंगली उठी है! मुम्बई में अक्सर ऐसा होता रहा है। और बुरा मत मानिए, ज़्यादा गलत भी नहीं कहा जाता है। पर सवाल है कि क्यों इन राज्यों से इतने सारे लोगों को बाहर जा कर काम करना पड़ता है? दिल्ली के बारे में तो माना जा सकता है कि वहाँ अधिकतर लोग पंजाब, हरियाणा, यू.पी या दुसरे राज्यों से हैं, पर जब यहाँ से लोग मुम्बई जाते हैं काम की खोज में तो वहाँ पर इस बात पर भी उंगलियां उठती हैं कि 'वो' लोग 'हमारे' काम छीन रहे हैं!

अगर राजनीतिज्ञों को प्रदेश और लोगों के स्वाभिमान कि इतनी ही चिन्ता है तो क्यों नहीं उन्हें यहीं पर रोज़गार के मौक़े दिए जाते? क्यों पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों को दिल्ली/मुम्बई/गुजरात या कहीं और भागना पड़ता है? अपनी राजनीतिक हैसियत दिखाने के बदले अगर नेताशाही कुछ कर दिखाने का दम दिखाए तो बेहतर होगा। मायावती ने अभी तक तो जो संकेत दिए हैं उनसे तो इसका ठीक विपरीत ही होता दिखता है। अनिल अम्बानी की परियोजनाएं तो रद्दी की टोकरी में जा रही हैं (इस पर कुछ नहीं कहूँगा, क्यूंकि अम्बानी बंधु जो करते दिखते हैं, उससे 'ज्यादा' करते हैं!), पर किसी और नयी परियोजना के बारे में कोई बात होती नहीं जान पड़ती!

तो लब्बो-लुआब यह की इस तरह के ताने और अपमान हमारे हिस्से आते ही रहेंगे, और शायद वही सियासी ताक़त ही हमें इससे बचाए रखेगी! पर कब तक?

शनिवार, 5 मई 2007

हैदराबाद की गरमी

सुबह सुबह ही भरी दुपहरी
सूरज दहके
लपटें बरसाये
कोयल का मन
क्यूँ कर बहके
क्यूँ वो चहके
क्यूँ गाये?

हवा गर्म है
धरा गर्म है
गर्म है नल का जल भी
कल ऐसा था
आज है ऐसा
क्या होगा ऐसा कल भी?