मंगलवार, 30 दिसंबर 2008

बहन (जी) के लिए इतना भी नहीं कर सकते?

हद कर दी आपने। (पता है गोविंदा, रानी मुख़र्जी की फ़िल्म का नाम है, टॉपिक चेंज मत करो!)

बहन कहते हो और बहन का जन्मदिन मनाने में नानी मरती है (अब यह मत कहना कि नानी नहीं, इंजिनियर मरता है!) ।

एक तो इतने अहमक भरे पड़े हैं बी एस पी में कि हर काम बेचारी एक जान बहन जी को करनी पड़ती है। ये तो गनीमत है कि यू. पी. जैसा स्टेट है जहाँ सरकार चलाने में कोई मेहनत नहीं है। बी एस पी का मतलब कोई 'बिजली सड़क पानी' थोड़े ही न है कि ये सब चीज़ें जनता को देनी पड़ें!

बेचारी बहन जी ३६४ दिन काम करती हैं, और काम भी कैसे कैसे विकट और मेहनत वाले!
इत्ते मोटे मोटे हार पहनना, आपके गले में एक लटका दें तो आपका तो सर टूट कर ज़मीन पर जा गिरे! लेकिन बहनजी इतने मेहनतकश हैं, उफ़ तक नहीं करती।

और कौन कहता है कि बहन जी सिर्फ़ दलितों की मसीहा हैं। खुदी देख लो, इंजिनियर की हत्या का आरोपी विधायक पंडित है, शेखर तिवारी, लेकिन बहन जी बचा रही हैं उसे। हैं कि नहीं। तो फ़िर? हर जाति को खुश रखना कोई मामूली काम समझे हो?

पूरी दुनिया में रिसेशन चला है और बड़े से बड़े इकोनोमिस्ट कहते हैं कि सरकार को ही अब मार्केट में पैसा डालना पड़ेगा, इन्फ्रास्ट्रक्चर पर पैसे खर्च करने पड़ेंगे। अब बोलो, बहन जी से ज़्यादा दूरदर्शी है कोई? इतने साल से आंबेडकर पार्क, परिवर्तन चौक और फ़िर मुख्यमंत्री निवास पर सैकडो करोड़ खर्च किए हैं उन्होंने! इंडस्ट्री वगैरह में रखा ही क्या है। देख लेना, रिसेशन में सबसे कम प्राइवेट नौकरियां यू पी में ही जाएंगी, क्यूँ अभी भी सबसे कम प्राइवेट नौकरियां यू पी में हैं!

और फ़िर अब लखनऊ को पिंक सिटी बना रही हैं। थोड़े दिन बाद जयपुर की जगह लखनऊ में आएँगे टूरिस्ट। समझा क्या बहन जी को।

और सोचो ज़रा, कितनी मुश्किल ज़िन्दगी है बेचारी बहन जी की। हर कोने में एक दुश्मन। हर किसी से उनकी जान को खतरा। बाहर निकलती हैं तो ३५० पुलिस वालों के पहरे में, ३५ कारों के काफिले में। अपनी रियाया के चेहरे तक नहीं देख पाती (सड़कों पे लोगों को दूसरी तरफ़ देखने को कहती है पुलिस, और जिनके घर हों वो घर की खिड़की दरवाज़े बंद कर के अन्दर बैठें, जब तक काफिला न निकल जाए)! बताओ ये भी कोई ज़िन्दगी है। लेकिन बहन जी ये सब सहन कर रही हैं सिर्फ़ आप जैसों के लिए। और आप उनका जन्मदिन मनाने के लिए २-३ लाख चंदा भी नहीं दे सकते!

वैसे एक आईडिया आया है, अगर ये सेक्शन ८० जी के अंतर्गत आ जाए तो कितना अच्छा हो। जैसे प्रधानमंत्री राहत कोष में दान ५०% कर मुक्त होता है, वैसे ही अगर जन्मदिन कोष में दिया हुआ चंदा भी कर मुक्त हो सके तो। और वैसे भी तो बहन जी आगे जा के पी एम ही तो बनेंगी।

वाह वाह, क्या आईडिया है! बहन जी सुन लो...

गुरुवार, 25 दिसंबर 2008

विविध भारती का 'चित्रलोक' याद है?

अब तो काफ़ी टाइम से विविध भारती तो क्या कोई हिन्दी स्टेशन नहीं सुना। यहाँ हैदराबाद में जब से रेडियो सिटी भी पूरी तरह से तेलुगु बन गया तब से रेडियो सुनना लगभग ख़त्म हो गया है।

करीब ८ साल हो गए हैं इलाहाबाद छोड़े हुए, और तभी से विविध भारती से नाता टूटा। नोएडा में तो आकाशवाणी के एफ एम चैनल आते थे और बाद में फ़िर रेडियो मिर्ची, रेडियो सिटी और रेड एफ एम जैसे नए स्टेशन शुरू हो गए थे। और सच कहूँ तो तब विविध भारती का छूटना कोई बुरा भी नहीं लगा। अब तो इलाहाबाद में भी बिग एफ एम शुरू हो गया है तो पता नहीं कितनी अभी भी विविध भारती सुनते होंगे!

इस चैनल के साथ मुझे प्रॉब्लम ये थी इस पर सिर्फ़ और सिर्फ़ पुराने गाने ही आते थे और किसी भी एंगल से ये मुझे अपना हमउम्र तो नहीं लगा कभी! हालांकि रात को ८.४५ पर रेडियो नाटिका और सन्डे के दिन विविधा मुझे बहुत पसंद थे और कमल शर्मा की ज़बरदस्त आवाज़ और अंदाज़ तो मैं शायद कभी नहीं भूल पाऊंगा। और भी कई कार्यक्रम मुझे काफ़ी अच्छे लगते थे. लेकिन समस्या थी पुराने गाने सो मेरा फेवरिट प्रोग्राम था 'चित्रलोक' सुबह ८.३० से ९.३० तक नयी फिल्मों के रेडियो विज्ञापन (८० के दशक के अंत और ९० के दशक की शुरुआत में रेडियो पर फिल्मों और राज कॉमिक्स के स्पॉन्सर्ड प्रोग्राम याद हैं?) आते थे और फ़िर नए गाने भी। दूरदर्शन पर तो ऐसा कोई कार्यक्रम आता नहीं था, सो नयी फिल्मों और उनके गाने सुनने के लिए यही एक जरिया था मेरे पास!

लेकिन फ़िर जैसे जैसे केबल टीवी का विस्तार बढ़ा, चित्रलोक से फिल्मों के विज्ञापन और फ़िर नए गाने भी गायब होते गए। नए गानों के नाम पर ६-८ महीने पुरानी फिल्मों के गाने बजने लगे। विविध भारती के लिए वो भी खैर नया ही था!

आज अचानक से याद आ गयी।

शनिवार, 6 दिसंबर 2008

सिर्फ़ नेताओं को गाली देने से काम नहीं चलेगा

इन दिनों आतंकवाद के ख़िलाफ़ काफ़ी सारे 'आन्दोलन' चल रहे हैं। कहाँ? इन्टरनेट पर, टीवी चैनलों पर और अखबारों में। सभी में दो ही बातें हो रही है, नेताओं के ख़िलाफ़ गुस्सा और 'आतंकवाद का विरोध'।

सिर्फ़ 'बातें'. चाहे वो कैंडल लाइट रैली हों या हस्ताक्षर अभियान सभी में सिर्फ़ 'बातें' और नारेबाज़ी। इस तरह नारे लगाने से या 'से नो टू टेरर' लिखने से अगर आतंकवादियों के हौंसले पस्त होने लगते तो आज तक दुनिया में आतंकवाद का नाम मिट गया होता।

लेकिन हम भारतीयों को 'सिम्बोलिज्म' से बड़ा प्यार है। ईमेल फॉरवर्ड कर के, रैली में मोमबत्ती जला के और नारे लगा के हमारे अपने कर्तव्यों की इतिश्री करना लेते हैं। किसी और पर ज़िम्मेदारी थोपने में हम वैसे ही माहिर हैं, इस बार नेताओं पर, (मैं यह हरगिज़ नहीं कह रहा कि नेताओं को क्लीन चिट दे दी जाए, उन्होंने वाकई गाली खाने लायक काम किया है!) लेकिन अपनी ज़िम्मेदारी को हम क्यों भूल जाते हैं।

सिर्फ़ बातों से काम नहीं चलेगा। क्या हम वाकई आतंकवाद के ख़िलाफ़ हैं? क्या हम सिम कार्ड के लिए फर्जी कागज़ नहीं देते? और नहीं देते तो लेने वाले दूकानदार के ख़िलाफ़ रिपोर्ट करते हैं? क्या हम मॉल के बाहर बैग चेक करने वाले प्राइवेट सेक्युरिटी गार्ड को धौंस नहीं देते? क्या हम रेलवे स्टेशन पर वाहन की जांच के समय नाक भौं नहीं सिकोड़ते? किरायेदार का पुलिस वेरिफिकेशन तो शायद ही कोई करता है और हम में से कितने किसी मुश्किल वक्त में पुलिस या अन्य एजेंसियों की मदद के लिए आगे आते हैं?

बातें करना आसान हैआतंकवाद का मुकाबला करने के लिए कुछ करने का माद्दा होना चाहिए

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

"वोट बैंक बनो". साथ दीजिये इस नए आन्दोलन में.

अगर आपने सुकेतु मेहता की 'मैक्सिमम सिटी: बॉम्बे लॉस्ट एंड फाउंड' पढ़ी है तो मुंबई के बारे में आप काफ़ी बातें जानेंगे। उनमें से एक ये है, कि चुनाव के समय कोई नेता दक्षिण मुंबई की अमीर सोसाइटीज़ में वोट मांगने नहीं जाता। ऐसे ही आन्ध्र प्रदेश में जयप्रकाश नारायण की लोकसत्ता पार्टी, जिसकी काफ़ी इज्ज़त की जाती है पढ़े लिखे तबकों में, एक भी सीट नहीं जीतती।

दोनों बातों की वजहें आप समझ ही गए होंगे। क्यूंकि ये पढ़े लिखे 'सभ्य समाज' के लोग वोट नहीं करने जाते।
एक बात हमको समझनी पड़ेगी। बात उसी की सुनी जाती है जिसकी कोई हस्ती होती है। नेताओं के लिए हमारी जान की कोई कीमत नहीं है, उनको सिर्फ़ अपनी घटिया और गन्दी राजनीति ही करनी है तो फ़िर ठीक है, हमको अपने वोट की कीमत पहचाननी होगी। अगर नेताओं के लिए सिर्फ़ वोट बैंक का ही मोल है तो हमको वोट
बैंक बनना पड़ेगा। नेताओं को समझाना पड़ेगा कि उनके घटियापन का जवाब हम अपने वोट के ज़रिये दे सकते हैं।

इसलिए ये एक नया आन्दोलन: Be Votebank. Be Heard.

६ राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, अधिक से अधिक लोग वोट दें, सभ्य समाज के लोग अपने आप को, अपने अस्तित्व को, अपनी राय को और अपने जीने के अधिकार को वोट के माध्यम से बढ़ा चढ़ा के बताएं। इसलिए ये पहल।
नीचे दिए गए किसी भी लोगो को अपने ब्लॉग/साईट पर लगाएं और अपने मित्रों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करें।

जो बोट से आए वो तो एन एस जी के कमांडो ने मार दिए, जो वोट से आते हैं, उनको तो हमें संभालना पड़ेगा न!
(यह पोस्ट अंग्रेज़ी में यहाँ)