इन दिनों आतंकवाद के ख़िलाफ़ काफ़ी सारे 'आन्दोलन' चल रहे हैं। कहाँ? इन्टरनेट पर, टीवी चैनलों पर और अखबारों में। सभी में दो ही बातें हो रही है, नेताओं के ख़िलाफ़ गुस्सा और 'आतंकवाद का विरोध'।
सिर्फ़ 'बातें'. चाहे वो कैंडल लाइट रैली हों या हस्ताक्षर अभियान सभी में सिर्फ़ 'बातें' और नारेबाज़ी। इस तरह नारे लगाने से या 'से नो टू टेरर' लिखने से अगर आतंकवादियों के हौंसले पस्त होने लगते तो आज तक दुनिया में आतंकवाद का नाम मिट गया होता।
लेकिन हम भारतीयों को 'सिम्बोलिज्म' से बड़ा प्यार है। ईमेल फॉरवर्ड कर के, रैली में मोमबत्ती जला के और नारे लगा के हमारे अपने कर्तव्यों की इतिश्री करना लेते हैं। किसी और पर ज़िम्मेदारी थोपने में हम वैसे ही माहिर हैं, इस बार नेताओं पर, (मैं यह हरगिज़ नहीं कह रहा कि नेताओं को क्लीन चिट दे दी जाए, उन्होंने वाकई गाली खाने लायक काम किया है!) लेकिन अपनी ज़िम्मेदारी को हम क्यों भूल जाते हैं।
सिर्फ़ बातों से काम नहीं चलेगा। क्या हम वाकई आतंकवाद के ख़िलाफ़ हैं? क्या हम सिम कार्ड के लिए फर्जी कागज़ नहीं देते? और नहीं देते तो लेने वाले दूकानदार के ख़िलाफ़ रिपोर्ट करते हैं? क्या हम मॉल के बाहर बैग चेक करने वाले प्राइवेट सेक्युरिटी गार्ड को धौंस नहीं देते? क्या हम रेलवे स्टेशन पर वाहन की जांच के समय नाक भौं नहीं सिकोड़ते? किरायेदार का पुलिस वेरिफिकेशन तो शायद ही कोई करता है और हम में से कितने किसी मुश्किल वक्त में पुलिस या अन्य एजेंसियों की मदद के लिए आगे आते हैं?
बातें करना आसान है॥ आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए कुछ करने का माद्दा होना चाहिए।
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