गुरुवार, 27 अगस्त 2009

ग्लोबल वार्मिंग

अब बारिश में
मेढक नहीं टरटराते।
रातों में जुगनू नहीं
जगमगाते.
आसमान भी अब स्लेटी सा है,
तारे भी नहीं दिखते अब
टिमटिमाते॥

अब पानी पड़ने पर
मिटटी नहीं महकती।
अब बालकनी में
सुबह गौरैया नहीं चहकती।

अब सर्दी
बस सर्दियों की छुट्टियों
जितनी होती है।
और गर्मी की छुट्टियाँ
गर्मियों का कोना पकड़
के रोती हैं।

अब पहाडों पर
बर्फ की चादर नहीं
बर्फ का रूमाल होता है,
ग्लोबल वार्मिंग का नहीं
आदमी के लालच का
ये कमाल होता है!

5 टिप्‍पणियां:

संगीता पुरी ने कहा…

सही है .. सुंदर अभिव्‍यक्ति !!

Life is What we make it ने कहा…

aakhiri para ne sab kah diya

Kiran Sindhu ने कहा…

अभिषेक,
कविता का विषय ज्वलंत है और प्रस्तुतीकरण अत्यंत सार्थक.आज के बच्चे जुगनू और गौरया को कहाँ जानते हैं? एक महाविनाश की ओर
हम बढ़ रहे हैं.काश हम कुछ कर पाते ! एक अच्छी रचना के लिए बधाई .
---किरण सिन्धु .

शरद कोकास ने कहा…

चलिये उम्मीद करे कविता ये काम कर जाये

Praveen राठी ने कहा…

और ऊपर से इस बार मानसून भी फीका रहा |
इस कविता का भी अपना एक तरीका रहा |

ज़बरदस्ती राईम करवा दिया :)