अब बारिश में
मेढक नहीं टरटराते।
रातों में जुगनू नहीं
जगमगाते.
आसमान भी अब स्लेटी सा है,
तारे भी नहीं दिखते अब
टिमटिमाते॥
अब पानी पड़ने पर
मिटटी नहीं महकती।
अब बालकनी में
सुबह गौरैया नहीं चहकती।
अब सर्दी
बस सर्दियों की छुट्टियों
जितनी होती है।
और गर्मी की छुट्टियाँ
गर्मियों का कोना पकड़
के रोती हैं।
अब पहाडों पर
बर्फ की चादर नहीं
बर्फ का रूमाल होता है,
ग्लोबल वार्मिंग का नहीं
आदमी के लालच का
ये कमाल होता है!
गुरुवार, 27 अगस्त 2009
बुधवार, 12 अगस्त 2009
बदली
मद्धम स्लेटी,
कितने सारे बादल
छाये हैं।
अद्भुत
मेरे सतरंगी सपने
सब एक रंग में
ही आए हैं!
मद्धम स्लेटी से
उन बादलों में,
खोजता हूँ
तुम्हारा चेहरा।
वो शायद नाक है वहाँ
और वो शायद आँखें
जहाँ रंग है गहरा।।
तस्वीर तुम्हारी ये हर पल
बनती है, बिगड़ती है
सुधरती है,
संवरती है।
शायद वैसे ही जैसे,
मेरे मन में
हर पल एक नयी
छवि तुम्हारी
घर करती है।।
आँखें बंद करुँ
सोचूँ तुम्हें,
पर हंस देती हो तुम
जैसे ही पास आती हो।
क्यूँ तंग करती हो,
हर बार
सब रंग
बिखेर जाती हो!
वहाँ नभ में भी
यही चला करता है
तंग करना
हँसना, खेलना।
मत सताओ,
शायद यही
कहते
होंगे हवा से
ये मेघ ना!
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