शनिवार, 16 जनवरी 2010

कुछ बिछड़े हुए दोस्त!

सियालदाह से मुझे एअरपोर्ट जाना था, बाकियों को हावड़ा स्टेशन।

बाकी यानी सौगत, विकास, एमएसआर। सौगत और विकास मुंबई जा रहे थे, एमएसआर चेन्नई। मेरी हैदराबाद की फ्लाईट थी।

मुझे एअरपोर्ट की टैक्सी में सौगत ने इतनी जल्दी बिठाया कि ठीक से अलविदा कहने का मौका भी नहीं मिला। 'अलविदा' यानी वो बातें जो हम किसी से बिछड़ते वक़्त कहते हैं। १ दिन पहले ही तो गौरी, नृपेश और दीप्ति से ये बातें की थीं।
...
"हाँ यार प्लीज़ टच में रहना"
"मैं तो रहूँगा, तुम लोग मत भूल जाना"
"ईमेल तो कर ही सकते हैं"
"ऑफकोर्स यार"
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...
और वगैरह वगैरह!

गौरी बैंगलोर चला गया। नृपेश और दीप्ति वापिस लन्दन (उनका तो नाम ही था, "लन्दन वाले पटेल" जो राजकोट के पटेल ग्रुप ने रखा था!) और विकास सबसे दूर, ऑस्ट्रेलिया!

एम एस आर के अलावा बाकी किसी को मैं १ हफ्ते पहले तक जानता भी नहीं था। संदकफू की यात्रा में सब मिले थे। मिले और दोस्त बन गए। एक प्लेट में खाया, एक बिस्तर में सोये, एक साथ हँसे, एक साथ पूरी यात्रा न सिर्फ ख़त्म की बल्कि अनुभव की! 'एक्सपीरिएंस' की।

अक्सर होता है न, आप ट्रेन में जा रहे होते हैं, और मंजिल आते आते आपके साथ के वो लोग जिन्हें आप आज के पहले न जानते थे और शायद न आज के बाद कभी मिलेंगे, आपके करीब हो जाते हैं। उस वक़्त तो लगता है कि हाँ ये दोस्ती तो अब चलेगी, इनके साथ तो हम नियमित संपर्क में रहेंगे और ये भावना सच्ची होती है!

लेकिन फिर आप वापिस आते हैं, ज़िन्दगी की भागदौड़ को दोष देना कितना आसान होता है न, कि इसी की वजह से आप सब भूल जाते हैं। ईमेल करना है, फोन करना है, मुबारकबाद देनी है पर क्या करें समय ही नहीं मिलता। अलविदा के वक़्त कही गयी सारी बातें बस बातें बन कर रह जाती हैं।

आज ऐसी बहुत सारी बातें जो कही थीं, सुनी थीं याद आ रही हैं। और याद आ रहे हैं उनसे जुड़े वो सारे चेहरे और वो सारे पल! कितना अच्छा होता न अगर ये यादें उन सब चेहरों तक पहुँच सकतीं... यही सन्देश होतीं और यही डाकिया! और वैसे भी साथ गुज़ारे उन पलों से बेहतर और सन्देश हो भी क्या सकता है॥

है ना?

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