बुधवार, 13 जनवरी 2010

अमन की आशा? जब तक सांस, तब तक आस!


गुलज़ार साहब की इस बेहद खूबसूरत कविता के उस अंश पर नज़र अटक गयी।
"सरहदों पे जो आये अबके तो लौट के न जाए कोई"

इसमें नयी बात कुछ नहीं है, पाकिस्तानी घुसपैठिये और अवैध रूप से भारत में रह रहे पाकिस्तानियों ने तो इस बात को हमेशा से अपनाया है :)

'अमन की आशा' एक अच्छी पहल है, लेकिन मेरे मन में सिर्फ एक ही सवाल है। अगर कोई नया हमला होता है पाकिस्तान की तरफ से, प्रत्यक्ष (फौजी) या अप्रत्यक्ष (आतंकवादी), तो इस पहल का क्या होगा? क्या फिर भी हमसे ये उम्मीद की जाएगी कि सब भूल कर हम पाकिस्तान और पाकिस्तानियों के प्रति प्रेम,सौहार्द और भाईचारा बनाये रखें?

'शांत और स्थिर पाकिस्तान भारत के लिए बेहतर है', क्या ये थ्योरी अभी भी विश्वसनीय है, ये देखते हुए कि भारत में आतंकी गतिविधियाँ ९० के दशक में शुरू हुईं जो पाकिस्तान का सबसे शांत समय था, और कम हुईं पिछले दशक में जब पाकिस्तान खुद ही मुश्किलों में घिरा हुआ था?

कोई नहीं चाहता कि युद्ध हो, लेकिन जब हम दोस्ती का हाथ बढ़ाते हैं तो ये तो पता होना चाहिए कि वो हाथ जिसकी तरफ बढ़ रहा है, उस चेहरे पर कोई मुखौटा तो नहीं है!

(पाकिस्तान के जंग समूह के ' न्यूज़' अखबार का ये लेख पढ़िए और खुद परखिये इस लेख का लहज़ा)

1 टिप्पणी:

Smart Indian ने कहा…

सही कहा आपने. मुल्क की सरहद पर हमारे लिए जान देनेवालों के बारे में लिखने पर उतनी मकबूलियत नहीं मिलती है - बस इतनी मजबूरी है.