आज यूँही बातों बातों में पुराने दूरदर्शन वाले दिनों की बातें चल निकलीं!
और फ़िर कितने सारे पुराने कार्यक्रमों की याद आ गयी। शुरुआत हुई 'रामायण' से। तब मैं बहुत छोटा था और गाँव में था, जहाँ मेरे पापा बिजली विभाग में अभियंता थे। गढी मानिकपुर, प्रतापगढ़ में वो पहला टीवी था जो मेरे घर में आया। इसके बाद तो हर रविवार सुबह मेरे घर का बाहरी कमरा जहाँ से टीवी देखा जा सकता था, पूरी तरह भर जाता था। गाँव भर के जितने लोग उस कमरे में ऐसे बैठ सकते थे कि टीवी देखा जा सके, बैठ जाते थे।
घर के सदस्य अन्दर के कमरे में बैठ कर देखते थे, जहाँ मेरी दादी टीवी के आगे हाथ जोड़ कर बैठती थी!
महाभारत के समय तक भी यही हालत रही। एक दिन जब लगभग पूरे एक घंटे तक 'रुकावट के लिए खेद है' ही देखने को मिला तो लोग कितने निराश हुए, मैं आज तक भूला नहीं हूँ।
गाँव में एक बन्दा था, उसका असली नाम था 'संतोष' पर हम उसे 'हनुमान' कहते थे। चित्रहार देखने ज़रूर आता था और अमिताभ बच्चन के गानों का इंतज़ार करता था। डॉक्टर विश्वकर्मा सलमा सुल्ताना और कुछ और उद्घोशिकाओं के दीवाने थे। बाद में कुछ और घरों में भी टीवी आ गया था और हमारे घर में भीड़ लगना बंद हो गया।
और भी कार्यक्रम थे, 'टीपू सुलतान की तलवार', 'भारत एक खोज', 'तेनालीरामा', 'नुक्कड़', 'सर्कस', 'फौजी' वगैरह वगैरह। रविवार को एक विज्ञान गल्प आधारित कार्यक्रम आता था, 'सिग्मा' जो मुझे बहुत पसंद था। 'सिग्मा' से जुड़ी हुई एक याद है जो हमेशा शर्मसार कर देती है। मेरी दादी का शव रखा था बाहर और मैं अन्दर आकर टीवी पर 'सिग्मा' देख रहा था। किसी ने मुझे डांट कर टीवी बंद कर दिया था, मुझे समझ में नहीं आया था कि मैंने ग़लत क्या किया। बहरहाल!
कितनी सारी यादें हैं उन दिनों की। कितने नाम, कितने चेहरे, कितनी आवाजें जुड़ी हुई हैं। एक दूरदर्शन होता था, सारा परिवार साथ बैठ कर देख सकता था, देखता था। अब तो जितने चैनल हैं उतने टीवी चाहिए कि हर कोई अपने मन का कार्यक्रम देख सके! कमरों के अन्दर ही अन्दर दीवारें बनती जा रही हैं।
चलूँ फ़िर से 'रामायण' का समय हो रहा है!
5 टिप्पणियां:
ये नई वाली रामयण का समय होगा..हमें तो ब्लैक एंड व्हाईट का जमाना याद है, जब सिर्फ शाम को टीवी आती थी...कृषि दर्शन-मधुमख्खी पालन और फिर छाया गीत और एक पुरानी फिल्म. :)
बहुत खूब याद कराया.
अच्छा स्मरण दिलाया आपने, बधाई
तब तो हम कुछ छोटे उम्र के थे किन्तु रामायण की छवि आज भी अकिंत है।
एक और प्रतापगढ़ी ब्लागर को देखकर अच्छा लगा।
हाँ जी समीर भइया, यह नयी रामायण का समय है, NDTV Imagine पर। चैनल बदल गए हैं, कलाकार बदल गए हैं, पर शैली अभी भी वैसी ही है और इसलिए अच्छी भी लग रही है! कृषि दर्शन को कौन भूल सकता है :)
महशक्ति जी, प्रतापगढ़ी कहिये, इलाहाबादी कहिये, लखनवी कहिये या हैदराबादी! हम तो पानी हैं, जहाँ गए वहीं के हो गए, हाँ मानिकपुर को कभी नहीं भूल सकता!
आप दोनों को धन्यवाद!
hi...sorry hindi bhasha me nahi likh rahi hun...par haan...aache din yaad dilaye...main surbhi kabhi nahi bhul sakti hun...and usme bheje hazaron postcards...pure parivaar walon ke naam se...but kabhi bhi 2 din 3 raaton ka kahin ke liye bhi inaam nahi nikla...kuch aur shows the...jaise ki humlog aur rajni...jo ki hamari zindagi ke zyada kareeb the (compared to kyunki saas bhi kabhi bahut thi)...mere papa ne mummy ko gaadi sikhayi jab Mahabharat aata tha tv pe...kyunki tab sadken ek dum khaali hoti thi aur vcr pe record karne ke liye laga jaate the aur vaapis aake dekhte the...:))...sachmuch aache the vo din...yaad dilane ke liye shukriya :))
आपकी पोस्ट पढकर बचपन के दिन याद आ गये जब रामायण के लिए रविवार सुबह ही उठ जाया करते थे। मोगली के इंतजार में पूरा हफ्ता गिन गिन कर निकालते थे। शायद इसी लगाव के कारण मैं आज दूरर्दशन में ही नौकरी भी कर रहा हूँ।
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