शनिवार, 17 जुलाई 2021

रिकॉर्ड

आखिरकार वो दिन आ ही गया था जब मनोज खुद से, बिना किसी की मदद के साइकिल चला सकता था. 

पहले हफ्ते भर तो पापा पीछे से साइकिल का कैरियर पकड़ते थे जब वो पैडल मारना सीख रहा था। शुरुआत में साइकिल बुरी तरह डगमगाती थी पर धीरे धीरे मनोज के हाथ, साइकिल के हैंडल, उसके पहिये सब में एक सामंजस्य बन गया था और साइकिल कमोबेश सीधी रेखा में चलने लगी थी. 

दूसरा हफ्ता आते आते पापा ने कैरियर पकड़ना छोड़ दिया था पर मनोज के मन का डर पूरी तरह से निकलने में थोड़ा समय लगा था। दूर ही सही, कोई या कुछ भी उसके सामने आ जाता था तो साइकिल लड़खड़ा जाती थी और वो तुरंत उतर जाता था. 

अब इस डर का इलाज तो डर से लड़कर ही किया जा सकता था तो हुआ यूं कि अब जब सुबह पापा टहलने निकलते तो मनोज भी उनके साथ ही मोहल्ले की खाली सड़क, जो सुबह और भी ज़्यादा खाली होती थी, पर साइकिल लेकर निकल पड़ता। इस सड़क को मनोज ने अपने दोस्तों के साथ बहुत बार अपने पैरों से नापा था तो सड़क अनजान तो नहीं थी, बस इतना अंतर था कि देखने का नज़रिया ज़रा बदल गया था.    

सुबह सड़क पर कोई गाड़ियां नहीं होती थीं, बस इक्का दुक्का लोग मॉर्निंग वॉक करते दिख जाते थे. अब मनोज हैंडल ज़रा सा घुमा के साइकिल को थोड़ा सा मोड़ना, घंटी बजा कर रास्ता बनाना, रफ़्तार कम-ज़्यादा करना आदि भी सीखने लगा. पहले तो पापा के बोलने पर और फिर खुद से ही.  जैसे जैसे दिन चढ़ता, सड़क पर चहल-पहल बढ़ती और बाप बेटा घर वापिस आ जाते। 

कुछ दिन तक यह क्रम चला और जैसा कि होता है मनोज और साइकिल के बीच अब वो रिश्ता हो गया था जिसे फिल्मों के शायर "दो-जिस्म-एक-जान" से परिभाषित करते हैं. 

और आखिरकार वो दिन आ ही गया था जब मनोज खुद से, बिना किसी की मदद के साइकिल चला सकता था. 

उसने हमेशा सुना, पढ़ा था कि कोई भी बिना गिरे साइकिल चलाना नहीं सीखता और इस लिए ये उसके लिए ख़ास तौर से गर्व की बात थी कि वो एक बार भी नहीं गिरा। अब वो अपने उन दोस्तों, जिन्हें अभी तक साइकिल चलाना नहीं आता था, को बिना मांगे फ़्री साइकिल कोचिंग भी देने लगा. पापा की सिखाई बातों के साथ साथ ग्रेविटी और मोमेंटम के एक आध फंडे भी जोड़ कर सिखाने से दोस्तों पर एक अलग ही प्रभाव पड़ता था, या कम से कम उसको तो ऐसा ही लगता था!

वैसे उसकी ख़ुद की साइकिल छोटी ही थी. उसने बहुत ज़िद की थी नयी साइकिल के लिए लेकिन हमेशा की तरह मम्मी, जो वैसे तो घर की प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और विदेश मंत्री होती थीं, ने वित्त मंत्रालय सँभालते हुए जनता को आश्वासन दिया था कि अभी सीखने के लिए सेकंड हैंड साइकिल ले ली जाए, बाद में नयी बड़ी साइकिल अवश्य दिलाई जाएगी।

और उसी संडे, सेकंड हैंड साइकिल पापा के दोस्त के घर से ले ली गयी. 

आज भी संडे था. साइकिल आये दो महीने हो चुके थे और बक़ौल मनोज अब वो साइकिल चलाने में 'प्रो' लेवल पर था. घर से बाहर अब पैरों का इस्तेमाल सिर्फ साइकिल चलाने में ही होता था. दूकान से कुछ लाना हो या किसी के घर जाना हो, पैदल चलना अब मनोज बाबू की शान के ख़िलाफ़ था। 

पापा और मनोज सुबह टहलने निकले. ज़ाहिरा तौर पर पापा पैदल और मनोज साइकिल पर. लेकिन आज मोहल्ले की सड़क पर नहीं, उससे भी आगे. इंजीनियरिंग कॉलेज के पास वाले मैदान की तरफ़. मनोज पापा से कुछ दूर तक आगे निकल जाता और फिर वापिस आता और यूं ही आगे पीछे करते करते वो इंजीनियरिंग कॉलेज के पास पहुँच गया. पापा थोड़ा पीछे थे। 

उसको एक हमउम्र लड़का पैदल जाता दिखा। न जाने क्यों मनोज के मन में इस लड़के से प्रतिस्पर्धा का भाव आ गया. लड़का पैदल था, वो साइकिल पर लेकिन फिर भी उसे लगा कि वो इस लड़के को 'हरा' कर मैदान तक पहले पहुंचेगा और उसे 'दिखा देगा'. क्या दिखाना था, ये शायद उसे खुद भी नहीं पता था! 

साइकिल की रफ़्तार तेज़ हो गयी, लड़के से आगे निकला तो घंटी बजा कर उसका ध्यान भी आकर्षित किया गया. मन में गर्व और विजय की अनुभूति से सीना फूल उठा. 

आगे रास्ता कच्चा था और थोड़ा ऊबड़ खाबड़ भी. मनोज के मन में एडवेंचर की भावना आ गयी और वो सीट से उठ कर पैडल मारने लगा. लेकिन ये रास्ता मोहल्ले की सड़क जैसा पहचाना हुआ नहीं था, आगे का टायर एक छोटे से गड्ढे में गया और इसके पहले मनोज कुछ कर पाता, वो साइकिल समेत ज़मीन पर था. 

बाएं हाथ की कोहनी में भयानक दर्द हो रहा था, कपड़े धूल धूसरित हो चुके थे, चप्पल पैर से निकल चुकी थी. बहुत कोशिश के बाद भी उससे उठा नहीं जा रहा था. दर्द के मारे आंखें आंसुओं से भर चुकी थीं. पापा कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे, साइकिल ज़्यादा तेज़ चलाने के कारण वो उनसे बहुत आगे निकल चुका था. उनके इंतज़ार का एक एक क्षण एक एक युग के बराबर लग रहा था.

तभी वो लड़का जिसको 'हरा' कर मनोज यहां तक पहुंचा था, आता दिखा। मनोज को लगा कि धरती फट जाए और वो उसमें समा जाए. 'दुश्मन' से मदद लेना हमारे बहादुर को बिलकुल मंज़ूर न था लेकिन उसके दुश्मन को तो इस दुश्मनी का आभास भी नहीं था तो जब उसने देखा कि एक लड़का गिरा पड़ा है तो वो दौड़ कर आया और उसे उठाया। मनोज को लग रहा था कि वो शर्म से गड़ा जा रहा है. पिछले पांच मिनट उसकी आँखों के आगे फ़िल्म की तरह निकल गए. शर्म अब भी थी, शायद पहले से और भी बहुत ज़्यादा, पर अब अपनी बेवकूफी पर. क्यों उसके मन में ये रेस लगाने का आईडिया आया?

तब तक पापा को भी अपना गिरा हुआ बेटा दिख गया था और उन्होंने दौड़ कर आ के मनोज के कपड़े झाड़ पोंछ कर साफ़ किये। लड़के ने साइकिल उठा कर स्टैंड लगा कर खड़ी कर दी थी और जा चुका था. 

वापसी में मनोज ने बाएं हाथ को दाहिने से पकड़ा हुआ था, साइकिल पापा ले कर चल रहे थे.  चोट और शर्म के मिले जुले आंसू गालों तक पहुँच चुके थे. 

लेकिन बाकी सब दुखों के अलावा उसके मन में एक दुःख ये भी था कि उसका साइकिल से ना गिरने का रिकॉर्ड अब टूट चुका था!

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