बुधवार, 12 अगस्त 2009

बदली

मद्धम स्लेटी, 
कितने सारे बादल
छाये हैं। 
अद्भुत 
मेरे सतरंगी सपने 
सब एक रंग में 
ही आए हैं! 

मद्धम स्लेटी से 
उन बादलों में, 
खोजता हूँ 
तुम्हारा चेहरा। 
वो शायद नाक है वहाँ 
और वो शायद आँखें 
जहाँ रंग है गहरा।। 

तस्वीर तुम्हारी ये हर पल 
बनती है, बिगड़ती है 
सुधरती है, संवरती है। 
शायद वैसे ही जैसे, 
मेरे मन में 
हर पल एक नयी 
छवि तुम्हारी 
घर करती है।। 

आँखें बंद करुँ 
सोचूँ तुम्हें, 
पर हंस देती हो तुम 
जैसे ही पास आती हो। 
क्यूँ तंग करती हो, 
हर बार 
सब रंग 
बिखेर जाती हो! 

वहाँ नभ में भी 
यही चला करता है 
तंग करना 
हँसना, खेलना। 
मत सताओ, 
शायद यही 
कहते होंगे हवा से 
ये मेघ ना!