रविवार, 15 अप्रैल 2007

खुशियाँ

खुशियाँ
न कोई नाम
न चेहरा।
स्वतंत्र, निर्बाध
न ताला ना पहरा।
भोली भाली मासूम खुशियाँ
बड़े सुखों से महरूम खुशियाँ।

कचरे के ढ़ेर से छनती खुशियाँ
दिन भर थक कर चूर हुई
नींद के आगोश में तनती खुशियाँ।
आहिस्ते अनजाने
चुपके से, मनमाने
ढंग से बनती खुशियाँ।

टूटे मिटटी के खिलौनों में
बस्ती खुशियाँ
आंखों ही आंखों में हंसती खुशियाँ
माँ के आँचल को नींद में डूबे डूबे ही कसती खुशियाँ।

छोटी छोटी खुशियों से
खुश होती खुशियाँ,
खुली हवा में आजादी से
हंसती रोती खुशियाँ।

हरसिंगार के फूल

हरसिंगार के फूल
जब महकें
मेरे मन में
यादों में,
दिल में,
धड़कन में.
अनदेखी, एक
अन्चीन्ही सी
खुशबू बस,
बस जाये तन में।

छोटी छोटी
प्यारी सी छवियाँ
आंखों के आगे,
हँसें, मुस्काएं
खिलें, खेलें, भागें।

एक नाज़ुक,
रूमानी सा एहसास,
एक चेहरा धुंधला सा
हो जैसे
दिल के आसपास।

छूना चाहूँ
छू ना पाऊँ,
छुऊंगा भी कैसे!
विचार होते ही हैं
बस खुशबू जैसे।

हँसता हूँ
कैसी भोली सी भूल,
पर फिर साँसों में
समाने लगते हैं
वही,
हरसिंगार के फूल.

शनिवार, 7 अप्रैल 2007

यादें

बचपन में माँ को
लिखी पहली चिट्ठी
कल मिली
धूल झाड़ी, पढी
यादों की नयी पोटली खुली।

याद आने लगा
बीता हुआ कल
दादी का लाड
और पापा की डाँट के
डर का हर पल।

गाँव का मेरा स्कूल
हर इक भूल
पर खींचे गए कान,
और वही दोहराने पर
पड़ी बेंत के निशान।

मम्‍मी से जिद करके
सावन के मेले में जाना
उंगली पकड़ के घूमना
और चौकी पे सीता
के पीछे बैठकर वापस आना।

छोटे छोटे से झगडे
छोटी छोटी सी बातें.
सुबह जल्दी उठती सुबहें,
रातों को देर तक टहलती रातें।

पहली चोरी!
ठेले से एक नीबू चुराया था।
और पकड़े जाने के
डर ने ही पकड़वाया था।

क्या क्या याद रखूँ,
क्या क्या भूलूं
जीं करता है कि
यादों के ढ़ेर कि
तह को छू लूं।

निरुद्‍देश्‍य

कभी चलें
यूँही.
बस कहीं भी.

न लक्ष्‍य,
न उद्‍देश्‍य कोई.
ध्‍येय न हो,
बस यही हो
यदि हो ध्‍येय कोई.

चलें चलते रहें,
अकेले,
रस्‍ता ही हो साथ
यदि किसी को ले लें.

दूर की,
अनंत सी यात्रा
निर्विघ्‍न, निर्विचार.
खत्‍म होती सी लगे,
पर हो न कभी,
एक छलावा हो
इसका विस्‍तार.

चलें नितांत अपने लिए,
चलें थके तन में
सपने लिए.

बस यूँही चलें
कहीं भी.
बस कहीं भी.