शनिवार, 7 अप्रैल 2007

निरुद्‍देश्‍य

कभी चलें
यूँही.
बस कहीं भी.

न लक्ष्‍य,
न उद्‍देश्‍य कोई.
ध्‍येय न हो,
बस यही हो
यदि हो ध्‍येय कोई.

चलें चलते रहें,
अकेले,
रस्‍ता ही हो साथ
यदि किसी को ले लें.

दूर की,
अनंत सी यात्रा
निर्विघ्‍न, निर्विचार.
खत्‍म होती सी लगे,
पर हो न कभी,
एक छलावा हो
इसका विस्‍तार.

चलें नितांत अपने लिए,
चलें थके तन में
सपने लिए.

बस यूँही चलें
कहीं भी.
बस कहीं भी.

कोई टिप्पणी नहीं: